इस दौरान मुझे भरपूर प्यार मिला और पाठकों की प्रतिक्रिया भी आइ कुछ ने फ़ोन पर भी अपनी प्रतिक्रिया दी
मंगलवार, 12 मई 2020
सोमवार, 11 मई 2020
खुलता-किवाड़ -१३
लता घर लौट आई थी? क्या लता सचमुच लौट आई थी ? हाँ वह अपने घर तो लौट आई थी लेकिन वह वर्तमान परिस्थिति को लेकर जूझती रही । वह न अनिता के दूर चले जाने की चेतावनी को भूल पा रही थी न अपने प्यार को । वह इतनी आसानी से कैसे हार जाती। वह रात में शशिकांत के साथ बिताए एक-एक पल को जोड़ती रही। लता पूरी तरह से बदल चुकी थी। उसने निर्णय ले लिया था। सुबह नींद खुली तो वह तरोताज़ा महसूस कर रही थी। वह किचन में गई । मम्मी से कहा चाय बना देती हूँ । चाय का कप लिये आँगन में आई। कुम्हलाये पौधों को सँवारा, सूखे और बेकार पत्तों को अलग किया , फिर खाद दिया, पानी दी,तो गुलाब मुस्कुराने लगा। मम्मी पापा के चेहरे भी।
किचन में गई , मम्मी का हाथ बटाने लगी , फिर अपने कमरे में जाकर सब कुछ व्यवस्थित करने लगी , सजाने लगी। तैयार होकर नाश्ता किया। फिर कालेज चली गई। कालेज से लौटकर फिर वह घर के काम में व्यस्त हो गई। जीवन महकने लगा , वह फिर से गीत गुनगुनाने लगी। प्रेम का गीत। ऐसा गीत जो आशाओं का आकाश उठाए हुए था। उस आदमी के लिए जो उसे बेइंतहा प्रेम किया है। वह डायरी खोलती, उस आदमी का नाम लिखती। उस नाम पर ऊँगली फेरती, चूमती और शरमा जाती।
एक दिन, दो दिन, तीन... पूरे हफ़्ते वह यही सब करते रही । पता नहीं जिस दिन से लता उस आदमी के घर से आई थी क्या जुनून सवार हो गया था कि वह घर के हर काम को मन लगाकर करने लगी थी , दुनियादारी की छोटी-छोटी चीज़ें सीखने की कोशिश करती।
लता के इस बदलते व्यवहार की घर पर भी चर्चा होती। लता ने कई बार महसूस भी किया था कि उसके बारे में बात की जा रही है । कभी कभी वह मम्मी पापा के पास जाकर बैठ जाती , लता के सिर पर पापा हाथ फेर देते , लता को यह सब बहुत अच्छा लगता। बाद में अपने कमरे में आकर लता सोचती वह इतने प्यार करने वाले मम्मी पापा से कैसे दूर रह सकती है।
लता के लिए किसी को भी छोड़ना आसान नहीं था। लता के मन में एक बोझ , बेबसी घर कर जाती , फिर वह इसे झटक देती । उस आदमी को लेकर लता ने निर्णय ले लिया था। मम्मी पापा को अपने निर्णय से अवगत कराने का अवसर ढूँढ रही थी। फिर वह दिन आ गया जब लता ने मम्मी पापा के सामने अपना इरादा खोलकर बैठ गई। लता ने कोई भूमिका नहीं बाँधी। जैसे कोई शपथ पत्र दाख़िल करता है । सीधे -सीधे कहा- मैं शशिकांत को भूल नहीं पा रही , उसके बग़ैर जी नहीं सकती । मुझे उसके साथ रहना ही होगा। मेरी ख़ुशी के लिए आपलोगो को अनुमति देनी होगी। मैं आप लोगों को भी नहीं छोड़ सकती।इसलिए उस आदमी को मैं इसी घर में लाना चाहती हूँ।
लता अपने रौ में बोलते जा रही थी। अपने मन को खोल दिया था। मन का बोझ उतर गया था। लता की पीड़ा आँखो से बहने लगी।
सब कुछ सुनकर भी मम्मी पापा इस बार चुप रहे। जैसे वे लता के इस निर्णय पर सहमति का मुहर लगाने तैयार हो गए हों। मम्मी उठकर भीतर कमरे में चली गई तो पापा भी सोफ़े से उठे , मगर वे दरवाज़े से लौट आए। लता के बग़ल में बैठे। सिर पे हाथ फेरते हुए कहा - बेटी तुम्हारी ख़ुशी से बढ़कर हमारे लिए कुछ भी नहीं है , मगर मेरा कहना है कोई भी निर्णय लेने से पहले सिर्फ़ एक बार और सोच लेना, हम लोगों के बारे में अनिता के बारे में । इतना कहकर पापा अपने कमरे में चले गए। लता भी चुपचाप अपने कमरे में आ गई। कमरे में अंधेरा था, उसने लाईट जलाने की कोशिश नहीं की , धम्म से बिस्तर पर पसर गई और बुदबुदाई - मेरा इंतज़ार करना शशिकांत . मैं कल आ रही हूँ...।
( समाप्त )
रविवार, 10 मई 2020
खुलता-किवाड़ -१२
लता व्याकुल और आतुर हो उठी। दरवाज़ा खुला । कमरे से निकलती हुई रोशनी उस पर पड़ी। वह हड़बड़ा गई। हड़बड़ाहट में होंठ कंपकपाए , होंठों पर ज़बान फेरी और वह प्रश्न करती इससे पहले ही फिर भीतर से आवाज़ आई, कौन आया है? इस बार लता को कोई भ्रम नहीं हुआ , यह आवाज़ उस आदमी की ही थी जिसके प्यार में वह तड़फ रही थी। जिसने लता को इस देश से दूर ले जाने का वादा किया था । परम्परा और समाज से दूर अपनी बाँहों में ज़िंदगी गुज़ारने की वकालत की थी। जिसने लता के बग़ैर अपने अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिन्ह खड़ा कर दिया था। और लता के बग़ैर जी नहीं पाने का भरोसा दिलाया था।
कहाँ है शशिकांत ? वह भीतर घुसती चली जा रही थी , रोशनी कमरे में फैली हुई घी , लता का चेहरा ग़ुस्से से तमतमा गया था। उसकी आँखे फैल गई थी। मन में उपजी घृणा के भाव चेहरे पर दिखने लगा था। लता अपने बस में नहीं थी वह लगभग चीख़ते हुए बोली - शशिकांत तुम कनाडा नहीं गए , यहीं हो? और मैं तुम्हारा इंतज़ार करते रोज़ मर रही हूँ। मेरे साथ इतना बड़ा धोखा आख़िर तुमने क्यों किया। यदि तुम्हें लगता है कि मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ तो मुझसे कहकर अलग हो सकते थे। मैंने तुम्हें बाँध तो नहीं रखा था। फिर इतना छल-प्रपंच क्यों?
लता ग़ुस्से में जो मन में आया कहती रही। और फिर अचानक फूट-फूट कर रोने लगी। वह हैरानी से उस आदमी की ओर भी भी देख रही थी जो अब तक उसकी गलियों को चुपचाप सुन रहा था और दरवाज़ा खोलने वाली औरत अवाक् खड़ी लता के ग़ुस्से को देख रही थी।
शशिकांत की ख़ामोशी ने लता के ग़ुस्से को और बढ़ा दिया था । लता रोते-रोते ग़ुस्से से अचानक शशिकांत की तरफ़ लपकने लगी तभी वह औरत दोनो के बीच में खड़ी हो गई। तब लता को अहसास हुआ कि कमरे में कोई और भी है। वह चुपचाप सोफ़े पर निढाल हो गई और ख़ुद को सहेजने लगी।
शशिकांत अब भी ख़ामोशी से लता को निहार रहा था । उसकी आँखें बेचैन थी तब लता की नज़र अचानक वहील चेयर पर पड़ी , उसका सारा ग़ुस्सा काफ़ूर हो गया । तभी पानी! शशिकांत के मुँह से आवाज़ निकली। वह औरत चुपचाप भीतर चली गई। और जब लौटी तो उसके हाथ में दो गिलास थे। एक लता को देते हुए उसने दूसरा गिलास शशिकांत को दिया। पानी पीने के बाद लता ने राहत महसूस की। कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ था , मानो कोई है ही नहीं। तभी इस नीरवता को उस औरत ने यह कहते हुए भंग किया कि तुम लता ही हो न। मेरा नाम आरती है। चाय पियोगी और लता का जवाब सुने बग़ैर ही वह भीतर चली गई।
लता अब भी शशिकांत को देखे जा रही थी और शशिकांत भी। आँखें दोनो की भर आई थी , निशब्द , दोनो भीतर तक रो रहे थे ।
तभी आरती चाय लेकर लौटी। शशिकांत को चाय देकर वह लता को चाय का कप थमाते हुए उसके बग़ल में बैठ गई। कोई कुछ नहीं बोल रहा था, पता नहीं क्यों इतनी ख़ामोशी कि कमरे में कोई नहीं । चाय की चुस्कियाँ ही कमरे में किसी के होने का अहसास करा रहा था।
चाय का कप टेबल पर रखते हुए अचानक लता खड़ी हुई । वह जाने के लिए अपना दायाँ पाँव उठाई ही थी कि आरती ने उसका हाथ पकड़कर वापस सोफ़े पर बिठा दिया। लता ने कोई प्रतिवाद नहीं किया ।
इस बार भी कमरे की नीरवता को आरती ने ही तोड़ते हुए कहा- लता ! एक औरत होने के नाते मैं तुम्हारी पीड़ा समझ सकती हूँ लेकिन इसमें दोष किसी का नहीं है। कम से कम शशिकांत का तो क़तई नहीं, वह तो कब से कह रहे थे की तुम्हारे पास सूचना भिजवा दो , वह इंतज़ार कर रही होगी।
फिर आरती ने लता के सामने शशिकांत के साथ घटी दुर्घटना की पूरी कहानी सुनाने लगी। आरती गाँव से कैसे आई । शशिकांत कैसे अस्पताल में ज़िंदगी और मौत से जूझता रहा । यहाँ तक कि आरती को भी लता की पूरी कहानी का पता था ।
लता जार - जार रोने लगी। शशिकांत के इस हालत के लिए वह स्वयं को दोषी मानने लगी तब आरती ने कहा- देखो लता मैंने तो अपना जीवन इस आदमी के बग़ैर गुज़ारने का निश्चय कर लिया था और गाँव में जी भी रही थी। मगर ईश्वर ने मेरी सुन ली । अब तुम्हारे लिए भी अच्छा है कि तुम आइंदा यहाँ न आओ। मैं जानती हूँ तुम दोनो एक दूसरे से प्यार करते हो मगर अब परिस्थियाँ बदल गई है।शशिकांत की ज़िंदगी से दूर चली जाओ ।
दूर चली जाओ, यह शब्द लता के सीने में किसी हथौड़े की तरह लगा , वह आरती में आई इस अचानक तब्दीली से भौच्चक रह गई । उसने शशिकांत की ओर देखा पर शशिकांत के नज़र फेरते ही वह फट पड़ी, और शशिकांत की चुप्पी पर प्रश्न खड़ा करते हुए कहा - शशिकांत मैं जानती हूँ कि तुम मुझे भूल नहीं सकते। मुझसे तुम अब भी प्यार करते हो , मगर स्वयं की इस हालत की वजह से मुझे तुम छोड़ना चाहते हो मगर सोचो कि यह सब कनाडा जाने के बाद होता , क्या तब भी तुम्हारा यही निर्णय होता। आज तो मैं जा रही हूँ, मगर कल फिर आऊँगी । तब मुझे कोई नहीं रोक पाएगा। लता हार मान जाने वाली में से नहीं थी। और आरती ख़ुद को बेबस पा रही थी , उसने प्रतिवाद करने की कोशिश तो की लेकिन शशिकांत की ख़ामोशी के आगे वह शांत हो गई
और लता फिर आने की घोषणा के साथ घर लौट गई ।
कहाँ है शशिकांत ? वह भीतर घुसती चली जा रही थी , रोशनी कमरे में फैली हुई घी , लता का चेहरा ग़ुस्से से तमतमा गया था। उसकी आँखे फैल गई थी। मन में उपजी घृणा के भाव चेहरे पर दिखने लगा था। लता अपने बस में नहीं थी वह लगभग चीख़ते हुए बोली - शशिकांत तुम कनाडा नहीं गए , यहीं हो? और मैं तुम्हारा इंतज़ार करते रोज़ मर रही हूँ। मेरे साथ इतना बड़ा धोखा आख़िर तुमने क्यों किया। यदि तुम्हें लगता है कि मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ तो मुझसे कहकर अलग हो सकते थे। मैंने तुम्हें बाँध तो नहीं रखा था। फिर इतना छल-प्रपंच क्यों?
लता ग़ुस्से में जो मन में आया कहती रही। और फिर अचानक फूट-फूट कर रोने लगी। वह हैरानी से उस आदमी की ओर भी भी देख रही थी जो अब तक उसकी गलियों को चुपचाप सुन रहा था और दरवाज़ा खोलने वाली औरत अवाक् खड़ी लता के ग़ुस्से को देख रही थी।
शशिकांत की ख़ामोशी ने लता के ग़ुस्से को और बढ़ा दिया था । लता रोते-रोते ग़ुस्से से अचानक शशिकांत की तरफ़ लपकने लगी तभी वह औरत दोनो के बीच में खड़ी हो गई। तब लता को अहसास हुआ कि कमरे में कोई और भी है। वह चुपचाप सोफ़े पर निढाल हो गई और ख़ुद को सहेजने लगी।
शशिकांत अब भी ख़ामोशी से लता को निहार रहा था । उसकी आँखें बेचैन थी तब लता की नज़र अचानक वहील चेयर पर पड़ी , उसका सारा ग़ुस्सा काफ़ूर हो गया । तभी पानी! शशिकांत के मुँह से आवाज़ निकली। वह औरत चुपचाप भीतर चली गई। और जब लौटी तो उसके हाथ में दो गिलास थे। एक लता को देते हुए उसने दूसरा गिलास शशिकांत को दिया। पानी पीने के बाद लता ने राहत महसूस की। कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ था , मानो कोई है ही नहीं। तभी इस नीरवता को उस औरत ने यह कहते हुए भंग किया कि तुम लता ही हो न। मेरा नाम आरती है। चाय पियोगी और लता का जवाब सुने बग़ैर ही वह भीतर चली गई।
लता अब भी शशिकांत को देखे जा रही थी और शशिकांत भी। आँखें दोनो की भर आई थी , निशब्द , दोनो भीतर तक रो रहे थे ।
तभी आरती चाय लेकर लौटी। शशिकांत को चाय देकर वह लता को चाय का कप थमाते हुए उसके बग़ल में बैठ गई। कोई कुछ नहीं बोल रहा था, पता नहीं क्यों इतनी ख़ामोशी कि कमरे में कोई नहीं । चाय की चुस्कियाँ ही कमरे में किसी के होने का अहसास करा रहा था।
चाय का कप टेबल पर रखते हुए अचानक लता खड़ी हुई । वह जाने के लिए अपना दायाँ पाँव उठाई ही थी कि आरती ने उसका हाथ पकड़कर वापस सोफ़े पर बिठा दिया। लता ने कोई प्रतिवाद नहीं किया ।
इस बार भी कमरे की नीरवता को आरती ने ही तोड़ते हुए कहा- लता ! एक औरत होने के नाते मैं तुम्हारी पीड़ा समझ सकती हूँ लेकिन इसमें दोष किसी का नहीं है। कम से कम शशिकांत का तो क़तई नहीं, वह तो कब से कह रहे थे की तुम्हारे पास सूचना भिजवा दो , वह इंतज़ार कर रही होगी।
फिर आरती ने लता के सामने शशिकांत के साथ घटी दुर्घटना की पूरी कहानी सुनाने लगी। आरती गाँव से कैसे आई । शशिकांत कैसे अस्पताल में ज़िंदगी और मौत से जूझता रहा । यहाँ तक कि आरती को भी लता की पूरी कहानी का पता था ।
लता जार - जार रोने लगी। शशिकांत के इस हालत के लिए वह स्वयं को दोषी मानने लगी तब आरती ने कहा- देखो लता मैंने तो अपना जीवन इस आदमी के बग़ैर गुज़ारने का निश्चय कर लिया था और गाँव में जी भी रही थी। मगर ईश्वर ने मेरी सुन ली । अब तुम्हारे लिए भी अच्छा है कि तुम आइंदा यहाँ न आओ। मैं जानती हूँ तुम दोनो एक दूसरे से प्यार करते हो मगर अब परिस्थियाँ बदल गई है।शशिकांत की ज़िंदगी से दूर चली जाओ ।
दूर चली जाओ, यह शब्द लता के सीने में किसी हथौड़े की तरह लगा , वह आरती में आई इस अचानक तब्दीली से भौच्चक रह गई । उसने शशिकांत की ओर देखा पर शशिकांत के नज़र फेरते ही वह फट पड़ी, और शशिकांत की चुप्पी पर प्रश्न खड़ा करते हुए कहा - शशिकांत मैं जानती हूँ कि तुम मुझे भूल नहीं सकते। मुझसे तुम अब भी प्यार करते हो , मगर स्वयं की इस हालत की वजह से मुझे तुम छोड़ना चाहते हो मगर सोचो कि यह सब कनाडा जाने के बाद होता , क्या तब भी तुम्हारा यही निर्णय होता। आज तो मैं जा रही हूँ, मगर कल फिर आऊँगी । तब मुझे कोई नहीं रोक पाएगा। लता हार मान जाने वाली में से नहीं थी। और आरती ख़ुद को बेबस पा रही थी , उसने प्रतिवाद करने की कोशिश तो की लेकिन शशिकांत की ख़ामोशी के आगे वह शांत हो गई
और लता फिर आने की घोषणा के साथ घर लौट गई ।
शनिवार, 9 मई 2020
खुलता-किवाड़ -११
लता के लिए एक-एक दिन काटना भारी पड़ रहा था। हालाँकि शशिकांत के कनाडा जाने के बाद से उस पर लगी बंदिशे अब पूरी तरह हट चुकी थी । वह आज़ाद थी । वह कहीं भी आ-जा सकती थी फिर भी उसकी हालत उस पंछी की तरह हो गई थी जिसे सालों पिंजड़े में बंद करने के बाद आज़ाद कर दिया हो , वह उड़ना भूल गई हो या उसे अपनी उड़ान की ताक़त का अन्दाज़ ही नहीं रहा हो।
उसका विश्वास डिगने लगा था , दो माह हो गए थे शशिकांत को कनाडा गए। तब से अब तक उस आदमी की कोई ख़बर नहीं थी । उसने कहा था वह फ़ोन करेगा, ई- मेल भेजेगा। उसने कितनी बार कम्प्यूटर खोलकर इन बाक्स को चेक किया था। वह रोज़ कई बार इन बाक्स को चेक करती और ई- मेल करती। वह अधीर होने लगी। जवाब दो शशिकांत , क्या हुआ शशिकांत , क्या तुम्हें मैं याद नहीं रही। पता नहीं कितने मैसेज लता ने भेजा था ।
वह शशिकांत को लेकर परेशान होने लगी । मन में कई तरह के विचार उठने लगे। लता को लगने लगा कि क्या शशिकांत ने उससे पीछा छुड़ाने कोई बहाना बनाया है? वह उससे पीछा छुड़ाने झूठ बोलकर चला गया? उसे झूठ बोलने की क्या आवश्यकता थी , वह सीधे बोल देता। शशिकांत को खोने का डर उसके मन में घर करते जा रहा था, वह छटपटाने लगती। बेचैन हो जाती। और फिर कुछ न समझ पाने पर रोने लगती। उसके आँसू से तकिया गीला हो जाता।
कभी-कभी लता को लगता कि शशिकांत को खो देने की वजह वह स्वयं है। उसे कनाडा भेजने की क्या ज़रूरत थी। घर वाले देर सवेर मान ही जातें। इतने बड़े देश में कहीं भी रह सकते थे। वह धीरे-धीरे अपराध- बोध से ग्रसित रहने लगी। लता ने पूरी तरह ख़ामोशी ओढ़ रखा था । वह घर में भी बहुत कम बातें करती । उसके इस व्यवहार से मम्मी को भी तकलीफ़ होने लगी थी । मम्मी उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसकी ख़ामोशी पर नाराज़गी जताती। लता ने देखा कि मम्मी पापा दोंनो ही उस पर ज़्यादा ध्यान देने लगे हैं मगर लता तो उस आदमी के लिए मरे जा रही थी जिसने कनाडा जाने के बाद एक ई-मेल या फ़ोन तक नहीं किया।
लता अचानक उठ बैठती। खिड़की के परदे हटा कर घंटो सड़कों को निहारती , कालेज आते व जाते समय कितनी ही बार उसे लगा कि वह आदमी उसके आसपास है। वह मुड़कर देखती और निराश हो जाती । उसकी आँखो की चमक ग़ायब हो जाती। धीरे-धीरे लता सबसे दूर होते जा रही थी। उसे लगता था जैसे कोई उसका अपना नहीं है। वह घंटो बिस्तर पर पड़ी रहती। मम्मी आकर पूछती। बेटा कैसे लग रहा है , दवाई दूँ। पापा कहते चलो डाक्टर के पास चलते हैं । इतनी सी बात पर भी लता चिड़चिड़ा जाती। वह अपने उम्र से बदी दिखने लगी थी।
चलते-चलते अचानक रुक जाना, किसी एक जगह खड़ी होकर वह अक्सर सोचती कि वह आदमी , जो उससे अथाह प्रेम का दावा करता था, उसके बग़ैर कैसे जी रहा होगा? हे भगवान! कहीं वह किसी संकट में तो नही फँस गया है। वह उसका गाँव का नाम तक नहीं जानती , क्या उसके घर जाकर अड़ोस-पड़ोस से पता करना चाहिए? कोई तो होगा जिससे शशिकांत सम्पर्क में होगा ।
फिर एक दिन, एक रविवार लता अपने जड़वत होते क़दम को रोक नहीं पाई , सूरज की रोशनी फिसलते-फिसलते अंधेरे की ओर क़दम रख रही थी। वह उठी, तैयार हुई, अनोखे ढंग से स्वयं को सजाया । दर्पण में स्वयं को निहारा, चेहरे मे मुस्कुराहट लाते माथे पर छोटी सी बिन्दी लगाई और पुनः अपने को निहारा। बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी वो। उस आदमी के कनाडा जाने के बाद वह पहली बार मन लगाकर सँवरी थी।
रोशनी और अंधेरे के संगम पर वह तेज़ी से क़दम बढ़ाते चली जा रही थी। उस आदमी के घर का मोड़ आते ही उसके दिल की धड़कन बढ़ गई। दूर से ही दरवाज़ा बंद दिखा। उसका सारा उत्साह जाता रहा। उसके पैर अचानक रुक गए। वह जड़वत खड़ी हो गई। वह नहीं समझ पा रही थी कि उसे क्या करना चाहिए , वह तो यहाँ किसी को जानती तक नहीं है। फिर वह किससे पुछे? ऐसे-कैसे किसी का दरवाज़ा खटखटाये?
इससे पहले वह जब भी शशिकांत के घर आई। कितनी ख़ुश होती थी। मगर इस बार लता अपने को सम्भाल नहीं पा रही थी। उसके पाँव काँप रहे थे। मन में एक अनजाना भय था। वह धीरे-धीरे शशिकांत के घर तक पहुँची , तो चौंक गई। दरवाज़ा बंद तो था लेकिन न कुंडी लगी थी न कोई ताला ही दिखा । वह चौंकी ! इसका मतलब घर में कोई है? लता ने सोचा कौन हो सकता हैघर में। इस बारे में उस आदमी ने कभी कुछ नहीं बताया था। उसके जाने के बाद घर बंद होगा, लता यही सोचती रही। लता की आँखो मेन चमक लौट आई। उसे लगा कि अब शशिकांत का पता चल जाएगा। स्वयं को सहज करते हुए लता ने दरवाज़े पर दस्तक दी। भीतर से किसी ने कहा- आरतीऽऽऽऽ ! देखो तो कौन है। लता को यह आवाज़ पहचानी सी लगी । शशिकांत की आवाज़! लता के चेहरे खिल उठे। मन ही मन कहा , पगला गई है। वह आदमी किस क़दर उसके ज़ेहन में समाया हुआ है कि उसे अब किसी और की आवाज़ भी शशिकांत की आवाज़ लगने लगा है।
उसका विश्वास डिगने लगा था , दो माह हो गए थे शशिकांत को कनाडा गए। तब से अब तक उस आदमी की कोई ख़बर नहीं थी । उसने कहा था वह फ़ोन करेगा, ई- मेल भेजेगा। उसने कितनी बार कम्प्यूटर खोलकर इन बाक्स को चेक किया था। वह रोज़ कई बार इन बाक्स को चेक करती और ई- मेल करती। वह अधीर होने लगी। जवाब दो शशिकांत , क्या हुआ शशिकांत , क्या तुम्हें मैं याद नहीं रही। पता नहीं कितने मैसेज लता ने भेजा था ।
वह शशिकांत को लेकर परेशान होने लगी । मन में कई तरह के विचार उठने लगे। लता को लगने लगा कि क्या शशिकांत ने उससे पीछा छुड़ाने कोई बहाना बनाया है? वह उससे पीछा छुड़ाने झूठ बोलकर चला गया? उसे झूठ बोलने की क्या आवश्यकता थी , वह सीधे बोल देता। शशिकांत को खोने का डर उसके मन में घर करते जा रहा था, वह छटपटाने लगती। बेचैन हो जाती। और फिर कुछ न समझ पाने पर रोने लगती। उसके आँसू से तकिया गीला हो जाता।
कभी-कभी लता को लगता कि शशिकांत को खो देने की वजह वह स्वयं है। उसे कनाडा भेजने की क्या ज़रूरत थी। घर वाले देर सवेर मान ही जातें। इतने बड़े देश में कहीं भी रह सकते थे। वह धीरे-धीरे अपराध- बोध से ग्रसित रहने लगी। लता ने पूरी तरह ख़ामोशी ओढ़ रखा था । वह घर में भी बहुत कम बातें करती । उसके इस व्यवहार से मम्मी को भी तकलीफ़ होने लगी थी । मम्मी उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसकी ख़ामोशी पर नाराज़गी जताती। लता ने देखा कि मम्मी पापा दोंनो ही उस पर ज़्यादा ध्यान देने लगे हैं मगर लता तो उस आदमी के लिए मरे जा रही थी जिसने कनाडा जाने के बाद एक ई-मेल या फ़ोन तक नहीं किया।
लता अचानक उठ बैठती। खिड़की के परदे हटा कर घंटो सड़कों को निहारती , कालेज आते व जाते समय कितनी ही बार उसे लगा कि वह आदमी उसके आसपास है। वह मुड़कर देखती और निराश हो जाती । उसकी आँखो की चमक ग़ायब हो जाती। धीरे-धीरे लता सबसे दूर होते जा रही थी। उसे लगता था जैसे कोई उसका अपना नहीं है। वह घंटो बिस्तर पर पड़ी रहती। मम्मी आकर पूछती। बेटा कैसे लग रहा है , दवाई दूँ। पापा कहते चलो डाक्टर के पास चलते हैं । इतनी सी बात पर भी लता चिड़चिड़ा जाती। वह अपने उम्र से बदी दिखने लगी थी।
चलते-चलते अचानक रुक जाना, किसी एक जगह खड़ी होकर वह अक्सर सोचती कि वह आदमी , जो उससे अथाह प्रेम का दावा करता था, उसके बग़ैर कैसे जी रहा होगा? हे भगवान! कहीं वह किसी संकट में तो नही फँस गया है। वह उसका गाँव का नाम तक नहीं जानती , क्या उसके घर जाकर अड़ोस-पड़ोस से पता करना चाहिए? कोई तो होगा जिससे शशिकांत सम्पर्क में होगा ।
फिर एक दिन, एक रविवार लता अपने जड़वत होते क़दम को रोक नहीं पाई , सूरज की रोशनी फिसलते-फिसलते अंधेरे की ओर क़दम रख रही थी। वह उठी, तैयार हुई, अनोखे ढंग से स्वयं को सजाया । दर्पण में स्वयं को निहारा, चेहरे मे मुस्कुराहट लाते माथे पर छोटी सी बिन्दी लगाई और पुनः अपने को निहारा। बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी वो। उस आदमी के कनाडा जाने के बाद वह पहली बार मन लगाकर सँवरी थी।
रोशनी और अंधेरे के संगम पर वह तेज़ी से क़दम बढ़ाते चली जा रही थी। उस आदमी के घर का मोड़ आते ही उसके दिल की धड़कन बढ़ गई। दूर से ही दरवाज़ा बंद दिखा। उसका सारा उत्साह जाता रहा। उसके पैर अचानक रुक गए। वह जड़वत खड़ी हो गई। वह नहीं समझ पा रही थी कि उसे क्या करना चाहिए , वह तो यहाँ किसी को जानती तक नहीं है। फिर वह किससे पुछे? ऐसे-कैसे किसी का दरवाज़ा खटखटाये?
इससे पहले वह जब भी शशिकांत के घर आई। कितनी ख़ुश होती थी। मगर इस बार लता अपने को सम्भाल नहीं पा रही थी। उसके पाँव काँप रहे थे। मन में एक अनजाना भय था। वह धीरे-धीरे शशिकांत के घर तक पहुँची , तो चौंक गई। दरवाज़ा बंद तो था लेकिन न कुंडी लगी थी न कोई ताला ही दिखा । वह चौंकी ! इसका मतलब घर में कोई है? लता ने सोचा कौन हो सकता हैघर में। इस बारे में उस आदमी ने कभी कुछ नहीं बताया था। उसके जाने के बाद घर बंद होगा, लता यही सोचती रही। लता की आँखो मेन चमक लौट आई। उसे लगा कि अब शशिकांत का पता चल जाएगा। स्वयं को सहज करते हुए लता ने दरवाज़े पर दस्तक दी। भीतर से किसी ने कहा- आरतीऽऽऽऽ ! देखो तो कौन है। लता को यह आवाज़ पहचानी सी लगी । शशिकांत की आवाज़! लता के चेहरे खिल उठे। मन ही मन कहा , पगला गई है। वह आदमी किस क़दर उसके ज़ेहन में समाया हुआ है कि उसे अब किसी और की आवाज़ भी शशिकांत की आवाज़ लगने लगा है।
शुक्रवार, 8 मई 2020
खुलता-किवाड़ -१०
अब वह शशिकांत से मिलने जाती तो सावधानी बरतने लगी थी। लता ने घर में उठे विवाद की जानकारी देते हुए उसे कहीं अन्यत्र मिलने के लिए मना लिया था । अब वे घर के अलावा कहीं और मिलने लगे थे ।
जब भी लता उस आदमी से मिलने जाती उसकी धुकधुकी बढ़ जाती थी । यह धुकधुकी उसके साथ- साथ चलती थी। उसे कई बार लगा कि उसका पीछा किया जा रहा है और जब उसकी आशंका निर्मूल साबित होती तो वह राहत की साँस लेती थी। लता आज सीधे शशिकांत के घर पहुँच गई थी। मोड़ के पास लता को आशंका हुई , वह पलटकर पीछे देखी। दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ था । फिर वह दरवाजे को धक्का दी । दरवाज़ा खुलता चला गया और वो भीतर चली गई। दोनो फेंटासी की दुनिया में खो चुके थे । शशिकांत कहे जा रहा था - तुम्हारे बग़ैर कल्पना बेमानी है, तुम मेरे प्राण हो , वह तरह-तरह के अलंकारो और उपमा से लता को रिझा लेता था , और लता फेंटासी की दुनिया में विचरण करने लगती । लता कृत्रिम ग़ुस्सा करती तो वह आदमी बिखर जाता था । उसका यूँ टूटना-बिखरना लता को ख़ूब भाता था। फिर वह एक-एक कर उसे जोड़ती और फेंटासी की दुनिया में खो जाती।
फिर एक दिन वही हुआ जिसकी आशंका थी। दरवाज़े पर दस्तक ने लता की धुकधुकी बढ़ा दी , शशिकांत भी चौंका था। कुंडी खोलते ही दरवाज़ा झटके के साथ खुलता चला गया , शशिकांत हड़बड़ाया और लता के मम्मी पापा सीधे भीतर आ गए । लता भी हड़बड़ाई , खड़ी हुई, चुनरी को व्यवस्थित करने लगी। तब तक मम्मी का हाथ लता के गाल पर जम चुका था । इस अप्रत्याशित घटना से अवाक् शशिकांत ने किसी तरह बीच- बचाव की कोशिश की तो लता रोते हुए सोफ़े पर धम्म से बैठ गई । मगर मम्मी का ग़ुस्सा कम ही नहीं हो रहा था। वह ग़ुस्से में चिल्लाते ही जा रही थी।
बड़ी मुश्किल में हालात सामान्य हुई मगर लता का सुबकना बंद ही नहीं हो रहा था । अब तक शशिकांत की चुप्पी से भी लता हैरान थी । वह कुछ भी नहीं बोला और पापा भी ख़ामोश रहे । बीच-बीच में वह स्थिति को संभालने की कोशिश करते रहे। शशिकांत से पुछा क्या वह लता से शादी के लिए तैयार हैं ? वह क्या चाहता है? ऐसे ढेरों प्रश्न एक साथ पुछे गए । और शशिकांत के इंकार सुनते ही मम्मी की त्योरियाँ फिर चढ़ गई। वह शशिकांत को भला-बुरा कहने लगी। तब लता के बीच में कूदने से मामला और बिगड़ गया।
उस दिन लता को लगभग खींचते हुए घर ले जाया गया। मम्मी इतने ग़ुस्से मेन थी कि उसने लता के घर से बाहर नहीं निकलने का फ़रमान तक सुना दिया । पापा के समझाने पर
लता के कालेज जाने पर इस शर्त पर तैयार हुई, कि उसे कालेज छोड़ने-लेने कोई न कोई जाएगा। इतनी बंदिश से लता बेहद दुखी रहने लगी पर ख़ुशी इस बात की है कि वह शशिकांत से कालेज में मिल लेती थी।
लता के लिए यह किसी त्रासदी से कम नहीं था। पास होते हुए वह उस आदमी की बाँहों मे नहीं समा पा रही थी , जिसे वह बेइंतहा प्यार करती है। उसकी इच्छा होती कि वह सभी बंदिशे एक झटके में तोड़ दे और किराए का अलग घर लेकर रहे मगर शशिकांत ने इसके लिए मना करते हुए कहा था कि मैं भी तो तुम्हारे लिए तड़फ रहा हूँ, वक़्त का इंतज़ार कर रहा हूँ। फिर कहीं दूर शायद दूसरा देश चले जाएँगे । जहाँ समाज और परम्परा के बंधन हमारे मिलन में बाधा नहीं बनेंगे। तुम मेरे साथ चलोगी न ! मैं तुम्हें अभी अपने घर ले जा सकता हुँ मगर तुम जानती हो तुम्हारे मम्मी पापा इसके लिए तैयार नहीं होंगे । वे तभी तैयार होंगे जब मैं तुमसे शादी करूँगा, और तुम जानती हो कि शादी के नाम से ही मुझे चिढ़ है। फिर तुम भी तो तो कभी जीवन मे विवाह नहीं करने का निर्णय लिया है, उस निर्णय का क्या? तुम इतनी कमज़ोर कैसे हो सकती हो?
लता को लगता कि शशिकांत भी उसे दिलों- जान से प्यार करता है। तभी तो वह उसके मान-सम्मान को लेकर चिंता करता है। काश वह शशिकांत के पास रह पाती। एक तरफ़ सपनो की अनोखी दुनिया और दूसरी तरफ़ कठोर वास्तविकता के बीच लता झुल रही थी। लता सोचती थी कि इस तरह का दोहरा जीवन क्या कोई और जी रहा है।
फिर एक दिन शशिकांत ने बताया कि कनाडा में नौकरी मिल रही है, और वह उसे शीघ्र ही ले जाएगा। तब तक वह धैर्य के साथ रहेगी । लता ख़ुशी से झूम गई , उसका मन नाचने को हो गया वह बेहद ख़ुश होकर घर लौटी थी लेकिन शशिकांत के दूर जाने को लेकर उस रात वह रोई भी बहुत। मन ही मन वह डर भी रही थी कि कहीं वह आदमी उसे कनाडा जाकर भुल तो नहीं जाएगा। वह कनाडा कैसे जाएगी ? क्या वह घर में सब कुछ बता देगी, बग़ैर किसी से कुछ कहे चुपचाप चली जाएगी। वह अपने मम्मी पापा को भी दुखी नहीं करना चाहती थी।
फिर वह दिन भी आ गया , शशिकांत ने अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। कनाडा जाने से पहले उस आदमी की बाँहों में पूरा दिन गुज़ारने की आस अधूरी रह गई। इस ख़बर से लता के घरवाले भी ख़ुश थे मगर लता के लिए यह असहय । जिस दिन शशिकांत कनाडा के लिए रवाना हुआ लता दिल खोलकर रोना चाहती थी। उस दिन उसे स्वयं पर भी बेहद ग़ुस्सा आया । बार-बार उसके मन में एक ही प्रश्न उठ रहे थे कि आख़िर वह इतना कायर कैसे हो गई, उस आदमी को वह ट्रेन में भी बिठाने नहीं जा पाई, जिसने उसकी ख़ुशी के लिए नौकरी छोड़ दी , देश छोड़ कर जा रहा है।
जबकि उसे याद है कालेज छोड़कर जाने से पहले शशिकांत ने ट्रेन का समय बताते हुए लता से स्टेशन आने का वादा लेते हुए कहा था मेरे लिए तुम्हें छोड़कर कहीं जाना बेहद कष्टदायक है । पता नहीं कितने दिन यह कष्ट झेलना पड़ेगा । तुम नहीं जानती मेरे लिए तुम सब कुछ हो, एक बार स्टेशन आओगी न!
लता के ज़ेहन में उस आख़िरी मुलाक़ात की एक-एक बातें बरसात की बादलों की तरह उमड़-घुमड़ रहे थे। उस आदमी ने लता को कितना ढाँढस बँधाया था , लता ठीक से रो भी नहीं पाई थी। उसका दिल बैठा जा रहा था। लता ने कहा भी था कि उसे साथ ले चलो।
तब शशिकांत ने कहा था लता तुम चिंता मत करो, अभी हमारे लिए वक़्त और घड़ी की सुइयाँ दोनो उलटा घुम रही है, देखना एक दिन इन सुइयों का घुमना रोक दूँगा और हम एक हो जाएँगे।
जब भी लता उस आदमी से मिलने जाती उसकी धुकधुकी बढ़ जाती थी । यह धुकधुकी उसके साथ- साथ चलती थी। उसे कई बार लगा कि उसका पीछा किया जा रहा है और जब उसकी आशंका निर्मूल साबित होती तो वह राहत की साँस लेती थी। लता आज सीधे शशिकांत के घर पहुँच गई थी। मोड़ के पास लता को आशंका हुई , वह पलटकर पीछे देखी। दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ था । फिर वह दरवाजे को धक्का दी । दरवाज़ा खुलता चला गया और वो भीतर चली गई। दोनो फेंटासी की दुनिया में खो चुके थे । शशिकांत कहे जा रहा था - तुम्हारे बग़ैर कल्पना बेमानी है, तुम मेरे प्राण हो , वह तरह-तरह के अलंकारो और उपमा से लता को रिझा लेता था , और लता फेंटासी की दुनिया में विचरण करने लगती । लता कृत्रिम ग़ुस्सा करती तो वह आदमी बिखर जाता था । उसका यूँ टूटना-बिखरना लता को ख़ूब भाता था। फिर वह एक-एक कर उसे जोड़ती और फेंटासी की दुनिया में खो जाती।
फिर एक दिन वही हुआ जिसकी आशंका थी। दरवाज़े पर दस्तक ने लता की धुकधुकी बढ़ा दी , शशिकांत भी चौंका था। कुंडी खोलते ही दरवाज़ा झटके के साथ खुलता चला गया , शशिकांत हड़बड़ाया और लता के मम्मी पापा सीधे भीतर आ गए । लता भी हड़बड़ाई , खड़ी हुई, चुनरी को व्यवस्थित करने लगी। तब तक मम्मी का हाथ लता के गाल पर जम चुका था । इस अप्रत्याशित घटना से अवाक् शशिकांत ने किसी तरह बीच- बचाव की कोशिश की तो लता रोते हुए सोफ़े पर धम्म से बैठ गई । मगर मम्मी का ग़ुस्सा कम ही नहीं हो रहा था। वह ग़ुस्से में चिल्लाते ही जा रही थी।
बड़ी मुश्किल में हालात सामान्य हुई मगर लता का सुबकना बंद ही नहीं हो रहा था । अब तक शशिकांत की चुप्पी से भी लता हैरान थी । वह कुछ भी नहीं बोला और पापा भी ख़ामोश रहे । बीच-बीच में वह स्थिति को संभालने की कोशिश करते रहे। शशिकांत से पुछा क्या वह लता से शादी के लिए तैयार हैं ? वह क्या चाहता है? ऐसे ढेरों प्रश्न एक साथ पुछे गए । और शशिकांत के इंकार सुनते ही मम्मी की त्योरियाँ फिर चढ़ गई। वह शशिकांत को भला-बुरा कहने लगी। तब लता के बीच में कूदने से मामला और बिगड़ गया।
उस दिन लता को लगभग खींचते हुए घर ले जाया गया। मम्मी इतने ग़ुस्से मेन थी कि उसने लता के घर से बाहर नहीं निकलने का फ़रमान तक सुना दिया । पापा के समझाने पर
लता के कालेज जाने पर इस शर्त पर तैयार हुई, कि उसे कालेज छोड़ने-लेने कोई न कोई जाएगा। इतनी बंदिश से लता बेहद दुखी रहने लगी पर ख़ुशी इस बात की है कि वह शशिकांत से कालेज में मिल लेती थी।
लता के लिए यह किसी त्रासदी से कम नहीं था। पास होते हुए वह उस आदमी की बाँहों मे नहीं समा पा रही थी , जिसे वह बेइंतहा प्यार करती है। उसकी इच्छा होती कि वह सभी बंदिशे एक झटके में तोड़ दे और किराए का अलग घर लेकर रहे मगर शशिकांत ने इसके लिए मना करते हुए कहा था कि मैं भी तो तुम्हारे लिए तड़फ रहा हूँ, वक़्त का इंतज़ार कर रहा हूँ। फिर कहीं दूर शायद दूसरा देश चले जाएँगे । जहाँ समाज और परम्परा के बंधन हमारे मिलन में बाधा नहीं बनेंगे। तुम मेरे साथ चलोगी न ! मैं तुम्हें अभी अपने घर ले जा सकता हुँ मगर तुम जानती हो तुम्हारे मम्मी पापा इसके लिए तैयार नहीं होंगे । वे तभी तैयार होंगे जब मैं तुमसे शादी करूँगा, और तुम जानती हो कि शादी के नाम से ही मुझे चिढ़ है। फिर तुम भी तो तो कभी जीवन मे विवाह नहीं करने का निर्णय लिया है, उस निर्णय का क्या? तुम इतनी कमज़ोर कैसे हो सकती हो?
लता को लगता कि शशिकांत भी उसे दिलों- जान से प्यार करता है। तभी तो वह उसके मान-सम्मान को लेकर चिंता करता है। काश वह शशिकांत के पास रह पाती। एक तरफ़ सपनो की अनोखी दुनिया और दूसरी तरफ़ कठोर वास्तविकता के बीच लता झुल रही थी। लता सोचती थी कि इस तरह का दोहरा जीवन क्या कोई और जी रहा है।
फिर एक दिन शशिकांत ने बताया कि कनाडा में नौकरी मिल रही है, और वह उसे शीघ्र ही ले जाएगा। तब तक वह धैर्य के साथ रहेगी । लता ख़ुशी से झूम गई , उसका मन नाचने को हो गया वह बेहद ख़ुश होकर घर लौटी थी लेकिन शशिकांत के दूर जाने को लेकर उस रात वह रोई भी बहुत। मन ही मन वह डर भी रही थी कि कहीं वह आदमी उसे कनाडा जाकर भुल तो नहीं जाएगा। वह कनाडा कैसे जाएगी ? क्या वह घर में सब कुछ बता देगी, बग़ैर किसी से कुछ कहे चुपचाप चली जाएगी। वह अपने मम्मी पापा को भी दुखी नहीं करना चाहती थी।
फिर वह दिन भी आ गया , शशिकांत ने अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। कनाडा जाने से पहले उस आदमी की बाँहों में पूरा दिन गुज़ारने की आस अधूरी रह गई। इस ख़बर से लता के घरवाले भी ख़ुश थे मगर लता के लिए यह असहय । जिस दिन शशिकांत कनाडा के लिए रवाना हुआ लता दिल खोलकर रोना चाहती थी। उस दिन उसे स्वयं पर भी बेहद ग़ुस्सा आया । बार-बार उसके मन में एक ही प्रश्न उठ रहे थे कि आख़िर वह इतना कायर कैसे हो गई, उस आदमी को वह ट्रेन में भी बिठाने नहीं जा पाई, जिसने उसकी ख़ुशी के लिए नौकरी छोड़ दी , देश छोड़ कर जा रहा है।
जबकि उसे याद है कालेज छोड़कर जाने से पहले शशिकांत ने ट्रेन का समय बताते हुए लता से स्टेशन आने का वादा लेते हुए कहा था मेरे लिए तुम्हें छोड़कर कहीं जाना बेहद कष्टदायक है । पता नहीं कितने दिन यह कष्ट झेलना पड़ेगा । तुम नहीं जानती मेरे लिए तुम सब कुछ हो, एक बार स्टेशन आओगी न!
लता के ज़ेहन में उस आख़िरी मुलाक़ात की एक-एक बातें बरसात की बादलों की तरह उमड़-घुमड़ रहे थे। उस आदमी ने लता को कितना ढाँढस बँधाया था , लता ठीक से रो भी नहीं पाई थी। उसका दिल बैठा जा रहा था। लता ने कहा भी था कि उसे साथ ले चलो।
तब शशिकांत ने कहा था लता तुम चिंता मत करो, अभी हमारे लिए वक़्त और घड़ी की सुइयाँ दोनो उलटा घुम रही है, देखना एक दिन इन सुइयों का घुमना रोक दूँगा और हम एक हो जाएँगे।
गुरुवार, 7 मई 2020
खुलता- किवाड़ -९
लता आज कालेज नहीं गई। वह घर से भी नहीं निकली , अपने कमरे से भी। मोहल्ले की कानाफूसी घर में सुनाई देने लगी थी। उस आदमी से लता के सम्बंध को लेकर घर में तीखे सवाल ही नहीं किए गए थे बल्कि लता के चरित्र पर भी उँगली उठाई गई थी।सुबह से शुरू हुई यह किच-किच रुकने का नाम ही नहीं लिया।
इससे पहले भी किच- किच होती रही लेकिन उसके चरित्र पर सवाल नहीं किया गया। जब उसने शादी नहीं करने का निर्णय लिया था तब भी। हाँ, मम्मी ने ज़रूर नाराज़गी दिखाते हुए कहा था कि वह सब यहाँ नहीं चलेगा। मगर इस बार शशिकांत को लेकर जब उसने कहा कि वह उससे प्रेम करती है तो पूरा घर ही उस पर पिल पड़ा था। लता अपने आप को भयंकर आहत महसूस कर रही थी। कोई उसके प्रेम को समझने तैयार नहीं हुआ । क्या कोई बग़ैर शादी किए अपने प्यार को निभा नहीं सकती। एक तरफ़ शशिकांत का प्यार तो दूसरी तरफ़ मम्मी पापा का दूलार । फिर भी वह आज स्वयं को अकेला महसूस क्यों कर रही है।
लता को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। एक तरफ़ उसका अपना शादी नहीं करने का निर्णय और दूसरी तरफ़ शशिकांत का निश्चल प्रेम।
इसी अंतर्द्वंद में उलझी लता अपनी डायरी निकाल कविता लिखने लगी -
प्रेम का अंत क्या कोई रिश्ता है
प्रेम को कोई रिश्ते
का नाम देना ज़रूरी है
जब राधा और कृष्ण का
प्रेम जब स्वीकार्य है
तब इस राधे के लिए
बंधन क्यों
पता नहीं लता और भी क्या - क्या लिखते रही ।
कविता लिखने के बाद उसे थोड़ी राहत मिली , तब वह कमरे से बाहर निकली। किसी ने उसे कुछ नहीं कहा , मगर सबके चेहरे से स्पष्ट था कि उससे अभी भी सब नाराज़ हैं। वह किसी भी हालत में शशिकांत को खोना नहीं चाहती थी और न ही अपने मम्मी पापा को। घर वालों के स्पष्ट चेतावनी से वह विचलित थी। वह चुपचाप किचन में गई उसको खाना खाने की बिलकुल भी इच्छा नहीं थी। मगर मम्मी की चेतावनी की वजह से वह किचन तक आई थी। मम्मी ने साफ़ कर दिया था कि यदि वह आज खाना नहीं खाएगी तो उसके लिए इस घर में कभी खाना नहीं बनेगा , ख़ुद बनाना और ख़ाना।
घर वालों की नाराज़गी कम करने का लता के लिए यह एक अवसर था। इसलिए इच्छा न होते हुए भी उसे खाना पड़ा। पता नहीं क्यों दूसरे के ख़ुशी के लिए अपनी इच्छाओं का गला घोंटना पदता है। एक बार लता ने यह सवाल शशिकांत से भी पूछा था, तब शशिकांत ने कहा था कि रिश्ते निभाने के लिए स्वयं की ख़ुशी का उस हद तक तिलांजलि नहीं देना चाहिये जिससे कोई ज़िंदा लाश बनकर रह जाये। पूरी दुनिया ही उजड़ जाने का आभास हो।
एक तरफ़ वह आदमी था जो उसकी हर प्रश्नो का सहज रूप से जवाब देता था, उसके हर निर्णय पर मुस्कुराकर सहमति देता था, दूसरी तरफ़ उसका अपना कहा जाने वाला घर था । जहाँ परम्परा, संस्कार की दुहाई के साथ इस बात के लिए भी पाबंदी थी कि दुनिया क्या कहेगी? समाज क्या कहेगा?
लता का मन विद्रोह करने के लिए आमदा था । पर वह अपने पापा से बहुत प्यार करती थी । पापा ने उसे हर मुश्किल राह में उसका साहस बढ़ाया था। मम्मी की परम्परा और मर्यादा में रहने की चेतावनी के समय भी पापा ने ही उसका साथ दिया था। लता के लिए किसी एक को पुरी तरह छोड़ देना आसान नहि था, इसलिए वह बेहद परेशान रहने लगी थी।
ऐसे में शशिकांत का लता के घर जाने को लेकर बढ़ते दबाव से लता चिंतित होने लगी। पहले तो लता ने किसी न किसी तरह का बहाना बनाकर उसे इधर-उधर की बातों में उलझा देती थी , मगर इन दिनो शशिकांत ज़िद पर उतर आया था । तब लता को बताना पड़ा कि उसे लेकर इन दिनो घर में तनाव है, ऐसे में वह घर आया तो लता की मुसीबत बढ़ जाएगी और हो सकता है शशिकांत को अपमानित भी होना पड़े। लता सब कुछ सहन कर सकती थी अपना अपमान भी वह सह रही थी लेकिन शशिकांत के अपमान को वह किस तरह बर्दाश्त करेगी।
यह बात सही थी पापा भले ही वक़्त की नज़ाकत को भाँप कर शशिकांत के सामने कुछ नहीं कहते। मगर मम्मी तो चुप रहने वाली नहीं है। वह सीधा कहती तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इस घर में क़दम रखने की। तुरंत निकलो , तब लता क्या बोलती। उसे याद है कालेज के दिनो मे एक लड़का नोट्स लेने घर तक आ गया था , पापा उसे भीतर ले आए थे, मगर मम्मी ने उसे इतना भला-बुरा कहा कि फिर किसी की उसके घर आने की हिम्मत नहीं हुई। क्योंकि इस घटना का पुरे कालेज में ख़ुलासा हो गया था, और उसका ख़ूब उपहास भी उड़ाया गया था। इस घटना को लता आज तक नहीं भूली है।
लता को महसूस होने लगा था कि घर वाले उस आदमी को लेकर जितनी पाबंदी लगा रहे है, उतना ही उसका प्रेम बढ़ता ही जा रहा है। हर पाबंदी के बाद वह अपने प्रेम को नया रूप देने लगती।
इससे पहले भी किच- किच होती रही लेकिन उसके चरित्र पर सवाल नहीं किया गया। जब उसने शादी नहीं करने का निर्णय लिया था तब भी। हाँ, मम्मी ने ज़रूर नाराज़गी दिखाते हुए कहा था कि वह सब यहाँ नहीं चलेगा। मगर इस बार शशिकांत को लेकर जब उसने कहा कि वह उससे प्रेम करती है तो पूरा घर ही उस पर पिल पड़ा था। लता अपने आप को भयंकर आहत महसूस कर रही थी। कोई उसके प्रेम को समझने तैयार नहीं हुआ । क्या कोई बग़ैर शादी किए अपने प्यार को निभा नहीं सकती। एक तरफ़ शशिकांत का प्यार तो दूसरी तरफ़ मम्मी पापा का दूलार । फिर भी वह आज स्वयं को अकेला महसूस क्यों कर रही है।
लता को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। एक तरफ़ उसका अपना शादी नहीं करने का निर्णय और दूसरी तरफ़ शशिकांत का निश्चल प्रेम।
इसी अंतर्द्वंद में उलझी लता अपनी डायरी निकाल कविता लिखने लगी -
प्रेम का अंत क्या कोई रिश्ता है
प्रेम को कोई रिश्ते
का नाम देना ज़रूरी है
जब राधा और कृष्ण का
प्रेम जब स्वीकार्य है
तब इस राधे के लिए
बंधन क्यों
पता नहीं लता और भी क्या - क्या लिखते रही ।
कविता लिखने के बाद उसे थोड़ी राहत मिली , तब वह कमरे से बाहर निकली। किसी ने उसे कुछ नहीं कहा , मगर सबके चेहरे से स्पष्ट था कि उससे अभी भी सब नाराज़ हैं। वह किसी भी हालत में शशिकांत को खोना नहीं चाहती थी और न ही अपने मम्मी पापा को। घर वालों के स्पष्ट चेतावनी से वह विचलित थी। वह चुपचाप किचन में गई उसको खाना खाने की बिलकुल भी इच्छा नहीं थी। मगर मम्मी की चेतावनी की वजह से वह किचन तक आई थी। मम्मी ने साफ़ कर दिया था कि यदि वह आज खाना नहीं खाएगी तो उसके लिए इस घर में कभी खाना नहीं बनेगा , ख़ुद बनाना और ख़ाना।
घर वालों की नाराज़गी कम करने का लता के लिए यह एक अवसर था। इसलिए इच्छा न होते हुए भी उसे खाना पड़ा। पता नहीं क्यों दूसरे के ख़ुशी के लिए अपनी इच्छाओं का गला घोंटना पदता है। एक बार लता ने यह सवाल शशिकांत से भी पूछा था, तब शशिकांत ने कहा था कि रिश्ते निभाने के लिए स्वयं की ख़ुशी का उस हद तक तिलांजलि नहीं देना चाहिये जिससे कोई ज़िंदा लाश बनकर रह जाये। पूरी दुनिया ही उजड़ जाने का आभास हो।
एक तरफ़ वह आदमी था जो उसकी हर प्रश्नो का सहज रूप से जवाब देता था, उसके हर निर्णय पर मुस्कुराकर सहमति देता था, दूसरी तरफ़ उसका अपना कहा जाने वाला घर था । जहाँ परम्परा, संस्कार की दुहाई के साथ इस बात के लिए भी पाबंदी थी कि दुनिया क्या कहेगी? समाज क्या कहेगा?
लता का मन विद्रोह करने के लिए आमदा था । पर वह अपने पापा से बहुत प्यार करती थी । पापा ने उसे हर मुश्किल राह में उसका साहस बढ़ाया था। मम्मी की परम्परा और मर्यादा में रहने की चेतावनी के समय भी पापा ने ही उसका साथ दिया था। लता के लिए किसी एक को पुरी तरह छोड़ देना आसान नहि था, इसलिए वह बेहद परेशान रहने लगी थी।
ऐसे में शशिकांत का लता के घर जाने को लेकर बढ़ते दबाव से लता चिंतित होने लगी। पहले तो लता ने किसी न किसी तरह का बहाना बनाकर उसे इधर-उधर की बातों में उलझा देती थी , मगर इन दिनो शशिकांत ज़िद पर उतर आया था । तब लता को बताना पड़ा कि उसे लेकर इन दिनो घर में तनाव है, ऐसे में वह घर आया तो लता की मुसीबत बढ़ जाएगी और हो सकता है शशिकांत को अपमानित भी होना पड़े। लता सब कुछ सहन कर सकती थी अपना अपमान भी वह सह रही थी लेकिन शशिकांत के अपमान को वह किस तरह बर्दाश्त करेगी।
यह बात सही थी पापा भले ही वक़्त की नज़ाकत को भाँप कर शशिकांत के सामने कुछ नहीं कहते। मगर मम्मी तो चुप रहने वाली नहीं है। वह सीधा कहती तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इस घर में क़दम रखने की। तुरंत निकलो , तब लता क्या बोलती। उसे याद है कालेज के दिनो मे एक लड़का नोट्स लेने घर तक आ गया था , पापा उसे भीतर ले आए थे, मगर मम्मी ने उसे इतना भला-बुरा कहा कि फिर किसी की उसके घर आने की हिम्मत नहीं हुई। क्योंकि इस घटना का पुरे कालेज में ख़ुलासा हो गया था, और उसका ख़ूब उपहास भी उड़ाया गया था। इस घटना को लता आज तक नहीं भूली है।
लता को महसूस होने लगा था कि घर वाले उस आदमी को लेकर जितनी पाबंदी लगा रहे है, उतना ही उसका प्रेम बढ़ता ही जा रहा है। हर पाबंदी के बाद वह अपने प्रेम को नया रूप देने लगती।
बुधवार, 6 मई 2020
खुलता - किवाड़ -८
ज़िंदगी रुक नहीं सकती , किसी भी समय नए जीवन की शुरुआत हो सकती है। लता का हाल इन दिनो बिलकुल ऐसा ही था। लता का सम्बंध एक ऐसे आदमी से बन गया था जिसे वह ठीक से जानती तक नहीं थी , ऐसे आदमी के प्रति समर्पण को लेकर वह इन दिनो अंतर्द्वंद में थी। एक बार उसे लगता वह ठीक कर रही है मगर दूसरे ही पल वह अपने निर्णय को लेकर परेशान हो जाती थी
शशिकांत ने साफ़ कर दिया था कि वह भी लता से बेइंतहा प्रेम करता हाई। वह जब चाहे उसके घर आ सकती है। एक बार शशिकांत ने कहा था लता मैंने जीवन में शादी नहीं करने का निर्णय लिया था परंतु मैं कितना ग़लत था।
लता के मन में अब भी उसे लेकर संदेह था , वह उससे कई प्रश्न करना चाहती थी मगर लता को डर भी था कि कहीं उसके प्रश्नो के उत्तर की बजायवह बुरा मान गया तो?
शशिकांत ने एक बार बताया था कि उसकी शादी बचपन मे ही अनिता से की गई थी , उस शादी को मैं नहीं मानता लेकिन अनिता अब भी उसका इंतज़ार करते गाँव में बैठी है। उसका राह देख रही है। लता ने तब पुछा था कि वह कैसे दिखती है ? तब उसने लता को कहा था कि तुम्हारे पैर की धोवन है। लता तब बहुत ख़ुश हुई थी लेकिन घर आने के बाद उसे पैर की धोवन शब्द को लेकर बहुत बुरा लगा था । औरतों के प्रति शशिकांत के इस सोच को लेकर वह परेशान भी हुई थी।
अनिता के प्रति लता की पूरी सहानुभूति थी और वह यदा कदा शशिकांत के सामने उसका ज़िक्र करती थी। उसके ज़िक्र से कई बार शशिकांत बुरी तरह नाराज़ भी हुआ , एक बार तो उसने यहाँ तक कह दिया कि अब के बाद यदि उस अनपढ़ का नाम भी लिया तो वह उससे बात भी नहीं करेगा।
लता इस व्यवहार को लेकर दुखी भी हुई , आख़िर अनिता के अनपढ़ रहने में उसकी क्या ग़लती है, मगर उसने यह सोचकर चुप्पी साध ली कि जब उस आदमी को ही अनिता की परवाह नहीं है, तब भला वह परवाह क्यों करे।
इधर लता के व्यवहार में आए बदलाव को लेकर मोहल्ले तक में काना-फुंसी होने लगी थी। लता यह सब जान समझ रही थी । उसके लिए क़दम पीछे खींचने का सवाल ही नहीं उठता था । उसने महसूस किया था किअब तो उसके आने और जाने को लेकर शशिकांत के मोहल्ले में भी कानाफुसी होने लगी थी। एक दिन तो एक छिछोरे टाईप लड़के ने बड़े ही भद्दे कमेंट्स पास किया तो उससे रहा नहीं गया और वह उससे जा भिड़ी। चौराहे में तमाशा खड़ा हो गया। जितनी मुँह उतनी बात। लता को तब अपने आप पर बहुत ग़ुस्सा आया कि वह आख़िर ऐसे लोगों के मुँह क्यों लगी।
उसने शशिकांत से भी ज़िक्र किया कि कैसे उसे लेकर मोहल्ले में चर्चा हो रही है। तब शशिकांत ने इतना ही कहा था कि इसके लिए तुम ही ज़िम्मेदार हो , मैं तो कब से कह रहा हूँ कि हम एक हो जाये।
एक हो जायें? लता घर जाने के बाद इस वाक्य को लेकर गुनती रही। कैसे एक हो जायें। लता आख़िर शशिकांत को जानती ही कितना है, लता को और कितना जानना था, उस आदमी को। तीन चार माह हो गए थे, वह रोज़ ही तो उस आदमी से मिल ही रही थी। फिर क्या बाक़ी रह गया है जानने समझने में। फिर भी लता को क्यों लग रहा था कि शशिकांत को अभी और जानना समझना है।
बात चारदिवारी से निकल चुकी थी , दिलों की धड़कन अब कानाफूसी तक आ पहुँची है। मगर कब तक यह सब चलता रहता? इस सम्बंध का क्या होगा? दोनो की ज़िंदगी में क्या मोड़ आने वाला है?
शशिकांत ने साफ़ कर दिया था कि वह भी लता से बेइंतहा प्रेम करता हाई। वह जब चाहे उसके घर आ सकती है। एक बार शशिकांत ने कहा था लता मैंने जीवन में शादी नहीं करने का निर्णय लिया था परंतु मैं कितना ग़लत था।
लता के मन में अब भी उसे लेकर संदेह था , वह उससे कई प्रश्न करना चाहती थी मगर लता को डर भी था कि कहीं उसके प्रश्नो के उत्तर की बजायवह बुरा मान गया तो?
शशिकांत ने एक बार बताया था कि उसकी शादी बचपन मे ही अनिता से की गई थी , उस शादी को मैं नहीं मानता लेकिन अनिता अब भी उसका इंतज़ार करते गाँव में बैठी है। उसका राह देख रही है। लता ने तब पुछा था कि वह कैसे दिखती है ? तब उसने लता को कहा था कि तुम्हारे पैर की धोवन है। लता तब बहुत ख़ुश हुई थी लेकिन घर आने के बाद उसे पैर की धोवन शब्द को लेकर बहुत बुरा लगा था । औरतों के प्रति शशिकांत के इस सोच को लेकर वह परेशान भी हुई थी।
अनिता के प्रति लता की पूरी सहानुभूति थी और वह यदा कदा शशिकांत के सामने उसका ज़िक्र करती थी। उसके ज़िक्र से कई बार शशिकांत बुरी तरह नाराज़ भी हुआ , एक बार तो उसने यहाँ तक कह दिया कि अब के बाद यदि उस अनपढ़ का नाम भी लिया तो वह उससे बात भी नहीं करेगा।
लता इस व्यवहार को लेकर दुखी भी हुई , आख़िर अनिता के अनपढ़ रहने में उसकी क्या ग़लती है, मगर उसने यह सोचकर चुप्पी साध ली कि जब उस आदमी को ही अनिता की परवाह नहीं है, तब भला वह परवाह क्यों करे।
इधर लता के व्यवहार में आए बदलाव को लेकर मोहल्ले तक में काना-फुंसी होने लगी थी। लता यह सब जान समझ रही थी । उसके लिए क़दम पीछे खींचने का सवाल ही नहीं उठता था । उसने महसूस किया था किअब तो उसके आने और जाने को लेकर शशिकांत के मोहल्ले में भी कानाफुसी होने लगी थी। एक दिन तो एक छिछोरे टाईप लड़के ने बड़े ही भद्दे कमेंट्स पास किया तो उससे रहा नहीं गया और वह उससे जा भिड़ी। चौराहे में तमाशा खड़ा हो गया। जितनी मुँह उतनी बात। लता को तब अपने आप पर बहुत ग़ुस्सा आया कि वह आख़िर ऐसे लोगों के मुँह क्यों लगी।
उसने शशिकांत से भी ज़िक्र किया कि कैसे उसे लेकर मोहल्ले में चर्चा हो रही है। तब शशिकांत ने इतना ही कहा था कि इसके लिए तुम ही ज़िम्मेदार हो , मैं तो कब से कह रहा हूँ कि हम एक हो जाये।
एक हो जायें? लता घर जाने के बाद इस वाक्य को लेकर गुनती रही। कैसे एक हो जायें। लता आख़िर शशिकांत को जानती ही कितना है, लता को और कितना जानना था, उस आदमी को। तीन चार माह हो गए थे, वह रोज़ ही तो उस आदमी से मिल ही रही थी। फिर क्या बाक़ी रह गया है जानने समझने में। फिर भी लता को क्यों लग रहा था कि शशिकांत को अभी और जानना समझना है।
बात चारदिवारी से निकल चुकी थी , दिलों की धड़कन अब कानाफूसी तक आ पहुँची है। मगर कब तक यह सब चलता रहता? इस सम्बंध का क्या होगा? दोनो की ज़िंदगी में क्या मोड़ आने वाला है?
मंगलवार, 5 मई 2020
खुलता-किवाड़। -७
क्या कोई इंसान अपने लिए जीता है। घर , परिवार, समाज कोई मायने नहीं रखता । फिर वह शशिकांत को लेकर इतनी चिंतित क्यों है? पता नहीं क्यों? लता उस आदमी की जीवन- शैली को लेकर परेशान हो जाती थी, और शशिकांत , उसे तो जैसे इन सबसे कोई मतलब ही नहीं था , अपनी धुन में बेपरवाह ! लता ने भी तय कर लिया था कि अब वह शशिकांत से कोई वास्ता नहीं रखेगी । मगर जीवन मे हर चीज़ वैसा नहीं होता, जैसा हम सोचते हैं। कई बार वक़्त आदमी को मजबूर कर देता है, और न चाहते हुए भी हमें उस राह पर चलना होता है जो कभी बेमानी समझा जाता है।
लता का कोई वास्ता नहीं रखने का निश्चय की दृढ़ता शशिकांत के सामने आते ही कमज़ोर पड़ जाती थी। उसने बहुत कोशिश की स्वयं को मज़बूत बनाए रखने की । वह कोशिश करती कि उसका शशिकांत से सामना न हो परंतु वह उसे देखने की भी इच्छा रखती थी। अजीब सा अंतर्द्वंद था।
लता ने कितनी ही बार सोचा कि वह शशिकांत से पुछे कि माँ के जाने के बाद उसके खाना-पीना कैसे हो रहा हाई। माँ ने एक बार बताया था कि पता नहीं इस लड़के का क्या होगा, गरम पानी तक नहीं कर सकता है। शादी के नाम से चिढ़ता है। मेरे जाने के बाद कैसे जिएगा?
लता इन दिनो शशिकांत को लेकर कुछ ज़्यादा ही सोचने लगी थी । वह कोई कवयित्री नहीं थी, परंतु कविता करने लगी थी। उसका मन होता था कि वह इस बारे में किसी से चर्चा करें , किसी को बता दें। धीरे - धीरे वह स्वयं से दूर होती जा रही थी । मानो उसके पास सिवाय उस आदमी के कुछ नहीं था। खाने-पीने की रुचि तो जाते ही रही थी। यहाँ तक कि अपने सबसे पसंदीदा गुपचुप चाट तक वह कई दिनो से नहीं खाई थी। घर के गमलो के गुलाब सुखने लगे थे। कमरे के कोने में मकड़ियाँ जाले बुनना शुरू कर दिया था। जैसे-तैसे वह कालेज के लिए तैयार हो पाती थी , सब कुछ अव्यवस्थित हो चला था।
उसने कितनी ही कोशिश की थी शशिकांत से प्रश्न पुछने की । परंतु सामने पड़ते ही सारे प्रश्न भूल जाती । केवल औपचारिक अभिवादन और मुस्कुराने के अलावा बात आगे ही नहीं बढ़ पा रही थी ।
एक दिन, दूसरे दिन फिर तीसरे, चौथे, पाँचवे... इस तरह से दिन गुज़र रहे थे । लता को समझ नहीं आ रहा था वह शशिकांत से बात कैसे करे, वह उसके आँखो में झाँकने की कोशिश करती पर शशिकांत के देखते ही चेहरा घुमा लेती फिर यही कोशिश होती, बार-बार होती!
फिर एक रविवार , लता ने स्वयं को तैयार किया, अपने सबसे पसंदीदा कलर की साड़ी पहनी, बाल सँवारे आइने में स्वयं को देर तक निहारा और घर से निकल गई । रास्ते में उसने गुलाब का एक पौधा ख़रीदा, छोटे से गमले सहित सूरज की किरणो को हाथ में पकड़ने की कोशिश में अपनी परछाईंयों के साथ शशिकांत के दरवाज़े के सामने खड़ी हो गई। दरवाज़े पर दस्तक दी तो एक पट थोड़ा सा खुला शशिकांत का चेहरा सामने था । वह मुस्कुराया और पूरा दरवाज़ा खोल दिया, लता भीतर समाते चली गई ।
जब वह पहली बार आई थी तब भी दरवाज़ा शशिकांत ने ही खोला था । तब लता के लिए सब कुछ अपरिचित था, मगर आज पूरा घर लता को ऐसा लग रहा था जैसा वह दस पंद्रह दिनो की छुट्टियाँ मनाकर अपना घर लौटी है , जैसा छोड़कर वह गई थी बिलकुल वैसा ही।
लता ने गमले सहित गुलाब के पौधे को उसे देते हुए कहा, इसे रोज़ पानी दे दिया करो , कभी इसमें खाद भी डाल देना , शशिकांत ने उससे गमला लेते हुए बैठने को कहा फिर वह भी लता के पास ही बैठ गया।
लता का कोई वास्ता नहीं रखने का निश्चय की दृढ़ता शशिकांत के सामने आते ही कमज़ोर पड़ जाती थी। उसने बहुत कोशिश की स्वयं को मज़बूत बनाए रखने की । वह कोशिश करती कि उसका शशिकांत से सामना न हो परंतु वह उसे देखने की भी इच्छा रखती थी। अजीब सा अंतर्द्वंद था।
लता ने कितनी ही बार सोचा कि वह शशिकांत से पुछे कि माँ के जाने के बाद उसके खाना-पीना कैसे हो रहा हाई। माँ ने एक बार बताया था कि पता नहीं इस लड़के का क्या होगा, गरम पानी तक नहीं कर सकता है। शादी के नाम से चिढ़ता है। मेरे जाने के बाद कैसे जिएगा?
लता इन दिनो शशिकांत को लेकर कुछ ज़्यादा ही सोचने लगी थी । वह कोई कवयित्री नहीं थी, परंतु कविता करने लगी थी। उसका मन होता था कि वह इस बारे में किसी से चर्चा करें , किसी को बता दें। धीरे - धीरे वह स्वयं से दूर होती जा रही थी । मानो उसके पास सिवाय उस आदमी के कुछ नहीं था। खाने-पीने की रुचि तो जाते ही रही थी। यहाँ तक कि अपने सबसे पसंदीदा गुपचुप चाट तक वह कई दिनो से नहीं खाई थी। घर के गमलो के गुलाब सुखने लगे थे। कमरे के कोने में मकड़ियाँ जाले बुनना शुरू कर दिया था। जैसे-तैसे वह कालेज के लिए तैयार हो पाती थी , सब कुछ अव्यवस्थित हो चला था।
उसने कितनी ही कोशिश की थी शशिकांत से प्रश्न पुछने की । परंतु सामने पड़ते ही सारे प्रश्न भूल जाती । केवल औपचारिक अभिवादन और मुस्कुराने के अलावा बात आगे ही नहीं बढ़ पा रही थी ।
एक दिन, दूसरे दिन फिर तीसरे, चौथे, पाँचवे... इस तरह से दिन गुज़र रहे थे । लता को समझ नहीं आ रहा था वह शशिकांत से बात कैसे करे, वह उसके आँखो में झाँकने की कोशिश करती पर शशिकांत के देखते ही चेहरा घुमा लेती फिर यही कोशिश होती, बार-बार होती!
फिर एक रविवार , लता ने स्वयं को तैयार किया, अपने सबसे पसंदीदा कलर की साड़ी पहनी, बाल सँवारे आइने में स्वयं को देर तक निहारा और घर से निकल गई । रास्ते में उसने गुलाब का एक पौधा ख़रीदा, छोटे से गमले सहित सूरज की किरणो को हाथ में पकड़ने की कोशिश में अपनी परछाईंयों के साथ शशिकांत के दरवाज़े के सामने खड़ी हो गई। दरवाज़े पर दस्तक दी तो एक पट थोड़ा सा खुला शशिकांत का चेहरा सामने था । वह मुस्कुराया और पूरा दरवाज़ा खोल दिया, लता भीतर समाते चली गई ।
जब वह पहली बार आई थी तब भी दरवाज़ा शशिकांत ने ही खोला था । तब लता के लिए सब कुछ अपरिचित था, मगर आज पूरा घर लता को ऐसा लग रहा था जैसा वह दस पंद्रह दिनो की छुट्टियाँ मनाकर अपना घर लौटी है , जैसा छोड़कर वह गई थी बिलकुल वैसा ही।
लता ने गमले सहित गुलाब के पौधे को उसे देते हुए कहा, इसे रोज़ पानी दे दिया करो , कभी इसमें खाद भी डाल देना , शशिकांत ने उससे गमला लेते हुए बैठने को कहा फिर वह भी लता के पास ही बैठ गया।
सोमवार, 4 मई 2020
खुलता-किवाड़ -६
मैं शादी नहीं करूँगी का निर्णय को लेकर लता जितनी अडिग थी उतनी ही इन दिनो वह शशिकांत की बेपरवाही से दुखी थी। वह जब भी कालेज में होती शशिकांत से प्रतिक्रिया की उम्मीद करती। परंतु शशिकांत इस सबसे अनजान और बेपरवाह केवल औपचरिकता निभाता। हद तो तब हो गई जब दो - तीन रविवार को शशिकांत के घर नहीं जाने के बावजूद उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
लता जब भी कालेज मे शशिकांत के सामने होती और शशिकांत औपचारिक अभिवादन कर मुस्कुराता , लता को लगता कि अब वह उसके घर नहीं आने की वजह पुछेगा ? वह इसे लेकर काफ़ी मानसिक यंत्रना झेल चुकी थी। वह चाहती तो इससे मुक्त भी हो सकती थी परंतु पता नहींक्यों वह ऐसा नहीं कर पा रही थी । एक अनजाना आकर्षण उसे खींचतारहता था। वह एक अनोखी मायाजाल मे फँस गई थी। उसे लगता कि वह शशिकांत से प्रेम करने लगी है। एक अनजाना रिश्ता बुना जाने लगा था। उसकी इच्छा होती वह स्वयं क्यों नहीं पुछ लेती या स्वयं क्यों नहीं बता देती कि वह उसके घर क्यों नहीं आ रही है। कई बार तो उसका मन करता शशिकांत की बाँह पकड़े और लड़ पड़े।
लता अपराध बोध से ग्रसित होने लगी थी , वह एक ऐसे चौराहे पर खड़ी थी जहाँ से वह शशिकांत की तरफ़ दो क़दम बढ़ाती तो चार क़दम स्वयं पीछे हट जाती थी।
शशिकांत आज दूसरे दिन भी कालेज नहीं आया तो लता चिंता में डुब गई। हक़ीक़त पता करने की कोशिश मे वह सिर्फ़ इतना जान पाई शशिकांत ने फ़ोन पर अवकाश लिया है । एक बार तो उसकी इच्छा भी हुई कि वह मोबाईल लगाकरपुछ ले।
आज चौथा दिन था शशिकांत के कालेज नहीं आने का। तब लता ने सोचा कि कालेज के बाद वह सीधे घर जाकर हक़ीक़त जान लेगी। कालेज से छूटते ही उसका मन हुआ की वह आख़िर शशिकांत के घर क्यों जाना चाहती है परंतु अनायास उसके क़दम शशिकांत के घर की ओर बढ़ गए । शाम का धुँधलका गहराने लगा था, वह उस मोढ़ तक पहुँच गई जहाँ से शशिकांत का घर दिखलाई पड़ता था । उसने अपने क़दमों को सम्भाल- सम्भाल कर रखते हुए आगे बढ़ाया , सन्नाटा पसरा हुआ था, उसके दिल की धड़कन तेज़ी से धड़कने लगा। वह घर के पास पहुँची तो वह चौंकी! दरवाज़ा खुला था, अंदर महिलाओं का हुजुम बाहर से ही दिख रहा था।
वह दरवाज़े पर पहुँची तो कितनी ही नज़र उसकी तरफ़ उठी। वह झिझकी, स्वयं को आस्वस्त किया कि वह सही पते पर है, फिर वह जैसे ही कमरे में क़दम रखी । एक दो महिलाओं ने उसके लिए सोफ़े की सीट छोड़ दी । वह अवाक् सोफ़े पर बैठ गई । ख़ामोशी गहराने लगा । ऐसा लग रहा था कि यहाँ कोई है ही नहीं। लता की चिंता और बढ़ गई। मन में आशंका- कुशंका से वह भीतर ही भीतर व्याकुल होने लगी। तभी भीतर से एक महिला पानी का गिलास लेकर आयी । ट्रे सामने करते ही लता का हाथ कैसे गिलास तक पहुँच गया वह जान ही नहीं पाई । और जब गिलास उठा लिया तो वह एक ही साँस में गिलास ख़ाली भी कर दी।
महिलाएँ अब भी ख़ामोश थी और लता की कुछ पुछने की हिम्मत नहीं हो रही थी। उसकी नज़रें शशिकांत और उसकी माँ को ढूँढने लगी, परंतु दोनो ही कहीं नहीं दिख रहे थे। वह भीतर जाने में संकोच कर रही थी, और वह इतना तो समझ चुकी थी, कि कुछ अनिष्ट हुआ है। पर क्या?
शाम और गहरा होने लगा, महिलाएँ एक-एक कर जाने लगी थी और अब घर में गिनती की महिलाएँ रह गई थी। लता ने अपने भीतर का साहस बँटोरा और साथ बैठी महिला से पुछा- ये सब कब हुआ?
जवाब आया, पिछले चार दिनो से अस्पताल में भर्ती थी , डाक्टर बीमारी का पता लगाते जब स्वयं में जीने की इच्छा ही न हो। आज सुबह ही अंतिम साँसे ली। शशिकांत का क्या होगा ? वह तो पुरी तरह अपने माँ पर निर्भर था। एक गिलास गरम पानी तक नहीं कर सकता।
तभी बाहर हलचल बढ़ गई। शशिकांत भीतर आया । लता और उसकी नज़रें मिली भी तो लता नज़रें चुराने लगी।पता नहीं क्यों लता को लगा कि वह शशिकांत का सामना नहीं कर पाएगी और चुपचाप बाहर निकल गई।
जैसे-तैसे वह घर पहुँची तो उसके देर से आने को लेकर घर में हंगामा हो गया। उस पर प्रश्नो के बौछार होने लगे। उसके जवाब से किसी को कोई लेना-देना नहीं था । वह एक प्रश्न का उत्तर देना चाहती तो दूसरा प्रश्न आ जाता। वह क्या जवाब देती। चुपचाप अपने कमरे में चली गई। जाते - जाते उसने सिर्फ़ इतना सुना अम्माँ कह रही थी अब तो इसके हाथ पीले कर ही दो , बहुत छूट दे रखी है, पछताना पड़ेगा।
कमरे में जाकर लता बिस्तर पर पसर गई। उसे आज कुछ ज़्यादा ही थकावट महसूस हो रही थी। दिल बैठा जा रहा था, घर वालों के इस व्यवहार से दुखी लता स्वयं को अकेला महसूस करते रही। ऐसा नहीं है कि उसके देर से आने को लेकर पहली बार प्रश्न उठे हो । पहले भी जब वह कभी शाम के बाद घर लौटी तो उसे कई तरह के न केवल प्रश्नो का सामना करना पड़ा है बल्कि उसे आवारा और न जाने क्या-क्या गालियाँ दी गई। परिवार को कलंकित करने का तोहमत तक लगाया गया। एक बार तो माँ ने उसे थप्पड़ तक जड़ दिया था । जब भी वह देर से घर आती उसके हाथ पीले करने का फ़रमान जारी कर दिया जाता।
और वह चुपचाप रह जाती। अपने ही घर में अकेले, भूखी-प्यासी । तब उसके ज़ेहन में उलाहना के शब्द चित्कार उठता। इस लड़की को माँ-बाप , परिवार से कोई लेना नहीं सिर्फ़ अपनी ख़ुशी के लिए जीती है।
लता जब भी कालेज मे शशिकांत के सामने होती और शशिकांत औपचारिक अभिवादन कर मुस्कुराता , लता को लगता कि अब वह उसके घर नहीं आने की वजह पुछेगा ? वह इसे लेकर काफ़ी मानसिक यंत्रना झेल चुकी थी। वह चाहती तो इससे मुक्त भी हो सकती थी परंतु पता नहींक्यों वह ऐसा नहीं कर पा रही थी । एक अनजाना आकर्षण उसे खींचतारहता था। वह एक अनोखी मायाजाल मे फँस गई थी। उसे लगता कि वह शशिकांत से प्रेम करने लगी है। एक अनजाना रिश्ता बुना जाने लगा था। उसकी इच्छा होती वह स्वयं क्यों नहीं पुछ लेती या स्वयं क्यों नहीं बता देती कि वह उसके घर क्यों नहीं आ रही है। कई बार तो उसका मन करता शशिकांत की बाँह पकड़े और लड़ पड़े।
लता अपराध बोध से ग्रसित होने लगी थी , वह एक ऐसे चौराहे पर खड़ी थी जहाँ से वह शशिकांत की तरफ़ दो क़दम बढ़ाती तो चार क़दम स्वयं पीछे हट जाती थी।
शशिकांत आज दूसरे दिन भी कालेज नहीं आया तो लता चिंता में डुब गई। हक़ीक़त पता करने की कोशिश मे वह सिर्फ़ इतना जान पाई शशिकांत ने फ़ोन पर अवकाश लिया है । एक बार तो उसकी इच्छा भी हुई कि वह मोबाईल लगाकरपुछ ले।
आज चौथा दिन था शशिकांत के कालेज नहीं आने का। तब लता ने सोचा कि कालेज के बाद वह सीधे घर जाकर हक़ीक़त जान लेगी। कालेज से छूटते ही उसका मन हुआ की वह आख़िर शशिकांत के घर क्यों जाना चाहती है परंतु अनायास उसके क़दम शशिकांत के घर की ओर बढ़ गए । शाम का धुँधलका गहराने लगा था, वह उस मोढ़ तक पहुँच गई जहाँ से शशिकांत का घर दिखलाई पड़ता था । उसने अपने क़दमों को सम्भाल- सम्भाल कर रखते हुए आगे बढ़ाया , सन्नाटा पसरा हुआ था, उसके दिल की धड़कन तेज़ी से धड़कने लगा। वह घर के पास पहुँची तो वह चौंकी! दरवाज़ा खुला था, अंदर महिलाओं का हुजुम बाहर से ही दिख रहा था।
वह दरवाज़े पर पहुँची तो कितनी ही नज़र उसकी तरफ़ उठी। वह झिझकी, स्वयं को आस्वस्त किया कि वह सही पते पर है, फिर वह जैसे ही कमरे में क़दम रखी । एक दो महिलाओं ने उसके लिए सोफ़े की सीट छोड़ दी । वह अवाक् सोफ़े पर बैठ गई । ख़ामोशी गहराने लगा । ऐसा लग रहा था कि यहाँ कोई है ही नहीं। लता की चिंता और बढ़ गई। मन में आशंका- कुशंका से वह भीतर ही भीतर व्याकुल होने लगी। तभी भीतर से एक महिला पानी का गिलास लेकर आयी । ट्रे सामने करते ही लता का हाथ कैसे गिलास तक पहुँच गया वह जान ही नहीं पाई । और जब गिलास उठा लिया तो वह एक ही साँस में गिलास ख़ाली भी कर दी।
महिलाएँ अब भी ख़ामोश थी और लता की कुछ पुछने की हिम्मत नहीं हो रही थी। उसकी नज़रें शशिकांत और उसकी माँ को ढूँढने लगी, परंतु दोनो ही कहीं नहीं दिख रहे थे। वह भीतर जाने में संकोच कर रही थी, और वह इतना तो समझ चुकी थी, कि कुछ अनिष्ट हुआ है। पर क्या?
शाम और गहरा होने लगा, महिलाएँ एक-एक कर जाने लगी थी और अब घर में गिनती की महिलाएँ रह गई थी। लता ने अपने भीतर का साहस बँटोरा और साथ बैठी महिला से पुछा- ये सब कब हुआ?
जवाब आया, पिछले चार दिनो से अस्पताल में भर्ती थी , डाक्टर बीमारी का पता लगाते जब स्वयं में जीने की इच्छा ही न हो। आज सुबह ही अंतिम साँसे ली। शशिकांत का क्या होगा ? वह तो पुरी तरह अपने माँ पर निर्भर था। एक गिलास गरम पानी तक नहीं कर सकता।
तभी बाहर हलचल बढ़ गई। शशिकांत भीतर आया । लता और उसकी नज़रें मिली भी तो लता नज़रें चुराने लगी।पता नहीं क्यों लता को लगा कि वह शशिकांत का सामना नहीं कर पाएगी और चुपचाप बाहर निकल गई।
जैसे-तैसे वह घर पहुँची तो उसके देर से आने को लेकर घर में हंगामा हो गया। उस पर प्रश्नो के बौछार होने लगे। उसके जवाब से किसी को कोई लेना-देना नहीं था । वह एक प्रश्न का उत्तर देना चाहती तो दूसरा प्रश्न आ जाता। वह क्या जवाब देती। चुपचाप अपने कमरे में चली गई। जाते - जाते उसने सिर्फ़ इतना सुना अम्माँ कह रही थी अब तो इसके हाथ पीले कर ही दो , बहुत छूट दे रखी है, पछताना पड़ेगा।
कमरे में जाकर लता बिस्तर पर पसर गई। उसे आज कुछ ज़्यादा ही थकावट महसूस हो रही थी। दिल बैठा जा रहा था, घर वालों के इस व्यवहार से दुखी लता स्वयं को अकेला महसूस करते रही। ऐसा नहीं है कि उसके देर से आने को लेकर पहली बार प्रश्न उठे हो । पहले भी जब वह कभी शाम के बाद घर लौटी तो उसे कई तरह के न केवल प्रश्नो का सामना करना पड़ा है बल्कि उसे आवारा और न जाने क्या-क्या गालियाँ दी गई। परिवार को कलंकित करने का तोहमत तक लगाया गया। एक बार तो माँ ने उसे थप्पड़ तक जड़ दिया था । जब भी वह देर से घर आती उसके हाथ पीले करने का फ़रमान जारी कर दिया जाता।
और वह चुपचाप रह जाती। अपने ही घर में अकेले, भूखी-प्यासी । तब उसके ज़ेहन में उलाहना के शब्द चित्कार उठता। इस लड़की को माँ-बाप , परिवार से कोई लेना नहीं सिर्फ़ अपनी ख़ुशी के लिए जीती है।
रविवार, 3 मई 2020
खुलता-किवाड़ -५
मैं शादी नहीं करूँगी, मुझे बहु मत बोलिये। यह बात जितनी माँ को चुभ गई थी, शायद उतना लता को भी। तभी तो वह घर आने के बाद भी बार-बार यही बात सोच रही थी। ऐसा क्या कह दिया था माँ ने जिस पर इस बुरी तरह से नाराज़ होकर बग़ैर उसकी बात सुने चली आई थी।
अंधेरा से जी घबरांने लगा तो लता ने कमरे की लाईट जला ली। बिस्तर पर लेटते ही उसे अपने कहे पर पछतावा होने लगा। जब वह मन ही मन शशिकांत के बारे में सोचते हुए हर रविवार उसके घर पहुँच जाती थी तब वह सिर्फ़ शादी और बहु की बात पर इतनी नाराज़ कैसे हो सकती है।
ऐसा किसी को आघात पहुँचाना क्या उचित हैलता के लिए? कभी-कभी लता सोचती थी कि वह सब उसका प्रारबध है। शायद यह पहले से तय था। कल जब वह कालेज पहुँचेगी तो शशिकांत की क्या प्रतिक्रिया होगी?
बार-बार लता के ज़ेहन में बहु और शादी को लेकर माँ की आवाज़ गूँज रही थी, वह अपने हाथों से जितनी बार कान को ढकने की कोशिश करती और तेज़ हो जाती। आँखे बंद करती तो माँ का चेहरा दिखाई पड़ता, वह हड़बड़ा कर बिस्तर पर बैठ जाती।
अपने शादी नहीं करने के निर्णय पर अडिग रहने तरह-तरह के तर्क से जूझते रही लता पूरी रात। शशिकांत को लेकर भी उसने क्या नहीं सोचा । क्या माँ ने शशिकांत के कहने पर ही यह रिश्ता जोड़ने को तैयार हुई या फिर उस माँ की सोच है कि जिसके बेटे को कोई लड़की नहीं मिल रही है, परंतु लता यह भी मानने को तैयार नहीं थी कि शशिकांत को कोई लड़की न मिले । दिखने में शशिकांत ठीक-ठाक ही था , स्वयं का घर और अच्छी ख़ासी नौकरी।
पूरी रात लता के लिए किसी भी निर्णय पर पहुँचना मुश्किल होता जा रहा था। वह जितना सोचती उतना ही उलझते चली जाती ।
लता बार-बार माँ को दिए आघात पर रुक जाती, पछताती । सवाल से शुरू हुई घर तक की यात्रा की एक-एक कड़ियों को जोड़ती, उसे नये रूप देती, उसे तोड़ती। इतना होने के बाद भी उसे चैन नहीं मिल रहा था । नींद आँखो से कोसो दूर थी। उसने कितनी ही बार कमरे की लाईट चालू और बंद किया था।
काफ़ी विचार मंथन और अंतर्द्वंद के बाद लता ने सोचा था कि यह उसका प्रारबध था और वह स्वयं को कमज़ोर होने नहीं देगी। उसके शादी नहीं करने का निर्णय उसने सब कुछ सोच कर लिया है और वह अपने निर्णय से नहीं डिगेगी। किसी को आघात पहुँचे तो पहुँचे। उसे उनसे क्या लेना देना है । फिर वह कब सोई पता नहीं चला।
दूसरे दिन जब जागी तो पहले से ज़्यादा तरोताज़ा महसूस कर रही थी। कल के अंतर्द्वंद से वह पूरी तरह मुक्त थी । कालेज में भी वह इस तरह सहज रही, मानो कल कुछ हुआ ही नहीं था । अपने काम में व्यस्त लता का शशिकांत से सामना भी हुआ परंतु जब शशिकांत ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की तो लता के मन में फिर एक बार अंतर्द्वंद उछाले मारने लगा , लेकिन उसने अपने मन के भाव को चेहरे तक आने के पहले ही रास्ता बदल दी।
लता ने तय कर लिया था कि अब वह शशिकांत के घर नहीं जाएगी।
अंधेरा से जी घबरांने लगा तो लता ने कमरे की लाईट जला ली। बिस्तर पर लेटते ही उसे अपने कहे पर पछतावा होने लगा। जब वह मन ही मन शशिकांत के बारे में सोचते हुए हर रविवार उसके घर पहुँच जाती थी तब वह सिर्फ़ शादी और बहु की बात पर इतनी नाराज़ कैसे हो सकती है।
ऐसा किसी को आघात पहुँचाना क्या उचित हैलता के लिए? कभी-कभी लता सोचती थी कि वह सब उसका प्रारबध है। शायद यह पहले से तय था। कल जब वह कालेज पहुँचेगी तो शशिकांत की क्या प्रतिक्रिया होगी?
बार-बार लता के ज़ेहन में बहु और शादी को लेकर माँ की आवाज़ गूँज रही थी, वह अपने हाथों से जितनी बार कान को ढकने की कोशिश करती और तेज़ हो जाती। आँखे बंद करती तो माँ का चेहरा दिखाई पड़ता, वह हड़बड़ा कर बिस्तर पर बैठ जाती।
अपने शादी नहीं करने के निर्णय पर अडिग रहने तरह-तरह के तर्क से जूझते रही लता पूरी रात। शशिकांत को लेकर भी उसने क्या नहीं सोचा । क्या माँ ने शशिकांत के कहने पर ही यह रिश्ता जोड़ने को तैयार हुई या फिर उस माँ की सोच है कि जिसके बेटे को कोई लड़की नहीं मिल रही है, परंतु लता यह भी मानने को तैयार नहीं थी कि शशिकांत को कोई लड़की न मिले । दिखने में शशिकांत ठीक-ठाक ही था , स्वयं का घर और अच्छी ख़ासी नौकरी।
पूरी रात लता के लिए किसी भी निर्णय पर पहुँचना मुश्किल होता जा रहा था। वह जितना सोचती उतना ही उलझते चली जाती ।
लता बार-बार माँ को दिए आघात पर रुक जाती, पछताती । सवाल से शुरू हुई घर तक की यात्रा की एक-एक कड़ियों को जोड़ती, उसे नये रूप देती, उसे तोड़ती। इतना होने के बाद भी उसे चैन नहीं मिल रहा था । नींद आँखो से कोसो दूर थी। उसने कितनी ही बार कमरे की लाईट चालू और बंद किया था।
काफ़ी विचार मंथन और अंतर्द्वंद के बाद लता ने सोचा था कि यह उसका प्रारबध था और वह स्वयं को कमज़ोर होने नहीं देगी। उसके शादी नहीं करने का निर्णय उसने सब कुछ सोच कर लिया है और वह अपने निर्णय से नहीं डिगेगी। किसी को आघात पहुँचे तो पहुँचे। उसे उनसे क्या लेना देना है । फिर वह कब सोई पता नहीं चला।
दूसरे दिन जब जागी तो पहले से ज़्यादा तरोताज़ा महसूस कर रही थी। कल के अंतर्द्वंद से वह पूरी तरह मुक्त थी । कालेज में भी वह इस तरह सहज रही, मानो कल कुछ हुआ ही नहीं था । अपने काम में व्यस्त लता का शशिकांत से सामना भी हुआ परंतु जब शशिकांत ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की तो लता के मन में फिर एक बार अंतर्द्वंद उछाले मारने लगा , लेकिन उसने अपने मन के भाव को चेहरे तक आने के पहले ही रास्ता बदल दी।
लता ने तय कर लिया था कि अब वह शशिकांत के घर नहीं जाएगी।
शनिवार, 2 मई 2020
खुलता-किवाड़ - 4
फिर वह हर रविवार को आने लगी। पहली बार वह शशिकांत के घर जब सुबह-सुबह आयी थी , तब सवाल लेकर आयी थी। परंतु अब वह तब आती , जब शाम के साये अंधेरे में बदलने लगते। वह रोशनी और अंधेरे के संगम के समय आती और रात तक रुकती । शशिकांत के माँ से घंटो बात करती ।
शाम को शशिकांत घर पर नहीं होता तो वह उसके आने का इंतज़ार करती और कई बार तो माँ के कहने बाद भी तब तक नहीं ज़ाती जब तक शशिकांत नहीं आ जाता, फिर शशिकांत को उसे छोड़ने जाना होता।
शशिकांत की माँ कब लता की माँ बन गई थी, कोई नहीं जानता! लता हर रविवार को आती। रोशनी और अंधेरे के संगम पर आती । शुरू-शुरू में तो वह दरवाज़े पर थाप देती फिर उसने थाप देना भी बंद कर दिया था । धीरे से दरवाज़े को ढकेलतींऔर दबे पाँव भीतर चली आती।माँ को भी अब जैसे उसके आने की आदत हो गई थी । वह सोफ़े पर इंतज़ार करते बैठी होती थी। लता आती माँ के पैर छूती
और फिर बाज़ू में सोफ़े पर ही बैठ जाती।
लता के आते ही माँ की आँखो की चमक बढ़ जाती थी । वह हर बार उसे ऊपर से नीचे तक निहारती और फिर एक दिन माँ ने लता का हाथ अपने हाथ में लेकर उसे घर के भीतर और भीतर तक ले गई थी। रसोई घर तक...।
लता को याद है, माँ का छुअन ।उसे अच्छा लगा था। विश्वास का अंकुर दोनो तरफ़ से फूटने लगे थे । वैसे तो शुरू-शुरू में माँ कम बातें ही करती थी , फिर दोनो कब घुल - मिल गये और इतना घुल-मिल गये कि दोनो में सब तरह की बातें होती। शशिकांत का शादी नहीं करने का निर्णय से लेकर उसकी रुचि तक जान गई थी लता।
अब तो लता जब भी आती माँ और शशिकांत का पसंदीदा बिस्कीट और मिठाइयाँ भी लाने लगी। माँ के मना करने के बाद भी वह इस मामले मेन अपना हक़ क़ायम रखना चाहती थी।
वह आती, पैर छूती और फिर घर के काम मे हाथ बँटाने लगती। उसे घर का काम अच्छा लगने लगा था। अच्छा तो उसे शशिकांत भी लगने लगा था । शशिकांत का घर भी उसे भाने लगा था। तभी तो वह प्रत्येक रविवार को पूरे शाम-रात तक रूकने लगी थी।
लता यह भी महसूस करने लगी कि शशिकांत भी उसे पसंद करने लगा है। शशिकांत घर में होता तो वह किसी न किसी बहाने यह जानने की कोशिश करती कि शशिकांत उसे देख रहा है।
उसने कालेज में भी इस बात को नोटिस में लिया था , कि शशिकांत उसके पीठ के पीछे उसे देख रहा है। इन चार माह में न लता ने ही कभी कुछ कहा और शशिकांत भी चुप रहा। पर ऐसा लगता कि दोनो ने ही किसी अलिखित समझौते पर दस्तखत कर दिये हैं।
समय के साथ माँ को भी दोनो के भीतर फ़ुट रहे प्रेम के अंकुर का आभास होने लगा था।पर माँ को इंतज़ार था वह धीरज नहीं खोना चाहती थी इसलिए लता के जाने के बाद जब खा-पीकर माँ बिस्तर पर लेटती तो वह बहु के रूप में लता को लेकर सपने बुनती । वह यह मानने को बिलकुल भी तैयार नहीं थी कि लता कोई और वजह से घर आती है। वह मन ही मन मौक़ा तलाश कर लता या शशिकांत से बात करने की सोचती। परंतु शशिकांत के निर्णय और लता के मोहक मुस्कान के बीच वह तय नहीं कर पा रही थी कि पहले किससे पुछा जाय।
इसी उधेड़ बुन में दो-तीन हफ़्ते शायद महीना कब बीत गया पता ही नहीं चला। माँ का दिल कहता लता ज़रूर बहु बनना स्वीकार कर लेगी परंतु शशिकांत और लता के बीच की औपचारिकता उसके मन को शंकित कर देता था।
आख़िर एक दिन माँ ने हर हाल में अपनी बात कहने का निर्णय ले लिया। समय अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रहा था । शशिकांत को दूर शहर में अपने दोस्त के पास आवश्यक काम से बाहर जाना था । माँ को डर था कि इस रविवार को शशिकांत के नहीं होने की वजह से लता शायद ही आये। परंतु शशिकांत ने इसका ज़िक्र लता से किया ही नहीं था , शायद ज़िक्र करता तो लता नहीं भी आती ।
निर्धारित समय में रोशनी फिसलते - फिसलते अंधेरे में समाने आतुर थी तभी लता दबे पाँव दरवाज़ा खोलकर भीतर आई। रोशनी और अंधेरे के इस संगम का इंतज़ार कर रही माँ की आँखें चमक उठी, चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए आज माँ ने लता का अलग ही ढंग से स्वागत किया था, परंतु लता को इसका अहसास ही नहीं हुआ। सोफ़े में बैठाने की बजाय माँ ने लता का हाथ पकड़ भीतर कमरे में ले गई, अपने कमरे में। बिस्तर पर लता को बिठाते हुए माँ बिलकुल उससे सट कर बैठ गई । लता के दोनो हाथ अपने हाथों में लेकर।
माँ अपनी बात कहने किसी भूमिका की तलाश में थी तो लता , माँ के इस व्यवहार से भीतर ही भीतर व्याकुल होने लगी, दिल धड़कने लगा, बेचैनी हाथों तक पहुँचने लगी। और वह अपने हाथों को छुड़ाने की कोशिश की तो हाथों पर दबाव और बढ़ गया।
लता को अपने हाथ में बंधन महसूस होने लगा। इस बंधन से छूटने की कोशिश की तो उसे लगा कि जैसे उसका हाथ किसी बर्फ़ की सिल्ली में फँस कर रह गया है। उसने माँ की आँखो में भरपूर नज़र डाली पर माँ की नज़रें कहीं और थी , उसने अपने को ढीला छोड़ते हुए लम्बी साँस ली। तब माँ ने उसकी ओर देखते हुए हाथ ढीले किए। लता तेज़ी से बल्कि यूँ कहें कि झटके से अपना हाथ खिंचते हुए स्वयं को थोड़ा सा खिसकाया।
माँ अब भी अनिर्णय की स्थिति में थी तो लता असमंजस की स्थिति में। कमरे में अंधेरा घना होने लगा था। खिड़की से आ रही रोशनी फिसलते-फिसलते कमरे से बाहर होने लगी थी और सन्नाटा बढ़ने लगा था। तब लता ने अचानक उठ कर लाईट जला दी। कमरे में दूधिया रोशनी बिखर गई।
रोशनी के साथ ही माँ के भीतर का साहस जागने लगा। रगो में रक्त का प्रवाह तेज़ होने लगा , धड़कने तेज़ होने लगी। स्वयं को सहज करते हुए लता की आँखों में झाँकते हुए चेहरे पर मुस्कान लाई और कहा - बेटा! तुम मेरी बहु बनोगी ।
झटके से हाथ छुड़ाते हुए लता खड़ी हो गई और लगभग चीख़ते हुए बोली - मैं शादी नहीं करूँगी , मुझे बहु मत बोलिए !
लता तुम पहली लड़की हो जिसमें मैंने अपने बहु को देखा है। ग़ुस्सा मत हो, मुझ पर विश्वास करो । मेरा ध्येय तुम नहीं समझ रही हो , परंतु लता यह सब सुनने के लिए नहीं रुकी। तेज़ी से कमरे से बाहर निकली, फिर घर से भी...।
शाम को शशिकांत घर पर नहीं होता तो वह उसके आने का इंतज़ार करती और कई बार तो माँ के कहने बाद भी तब तक नहीं ज़ाती जब तक शशिकांत नहीं आ जाता, फिर शशिकांत को उसे छोड़ने जाना होता।
शशिकांत की माँ कब लता की माँ बन गई थी, कोई नहीं जानता! लता हर रविवार को आती। रोशनी और अंधेरे के संगम पर आती । शुरू-शुरू में तो वह दरवाज़े पर थाप देती फिर उसने थाप देना भी बंद कर दिया था । धीरे से दरवाज़े को ढकेलतींऔर दबे पाँव भीतर चली आती।माँ को भी अब जैसे उसके आने की आदत हो गई थी । वह सोफ़े पर इंतज़ार करते बैठी होती थी। लता आती माँ के पैर छूती
और फिर बाज़ू में सोफ़े पर ही बैठ जाती।
लता के आते ही माँ की आँखो की चमक बढ़ जाती थी । वह हर बार उसे ऊपर से नीचे तक निहारती और फिर एक दिन माँ ने लता का हाथ अपने हाथ में लेकर उसे घर के भीतर और भीतर तक ले गई थी। रसोई घर तक...।
लता को याद है, माँ का छुअन ।उसे अच्छा लगा था। विश्वास का अंकुर दोनो तरफ़ से फूटने लगे थे । वैसे तो शुरू-शुरू में माँ कम बातें ही करती थी , फिर दोनो कब घुल - मिल गये और इतना घुल-मिल गये कि दोनो में सब तरह की बातें होती। शशिकांत का शादी नहीं करने का निर्णय से लेकर उसकी रुचि तक जान गई थी लता।
अब तो लता जब भी आती माँ और शशिकांत का पसंदीदा बिस्कीट और मिठाइयाँ भी लाने लगी। माँ के मना करने के बाद भी वह इस मामले मेन अपना हक़ क़ायम रखना चाहती थी।
वह आती, पैर छूती और फिर घर के काम मे हाथ बँटाने लगती। उसे घर का काम अच्छा लगने लगा था। अच्छा तो उसे शशिकांत भी लगने लगा था । शशिकांत का घर भी उसे भाने लगा था। तभी तो वह प्रत्येक रविवार को पूरे शाम-रात तक रूकने लगी थी।
लता यह भी महसूस करने लगी कि शशिकांत भी उसे पसंद करने लगा है। शशिकांत घर में होता तो वह किसी न किसी बहाने यह जानने की कोशिश करती कि शशिकांत उसे देख रहा है।
उसने कालेज में भी इस बात को नोटिस में लिया था , कि शशिकांत उसके पीठ के पीछे उसे देख रहा है। इन चार माह में न लता ने ही कभी कुछ कहा और शशिकांत भी चुप रहा। पर ऐसा लगता कि दोनो ने ही किसी अलिखित समझौते पर दस्तखत कर दिये हैं।
समय के साथ माँ को भी दोनो के भीतर फ़ुट रहे प्रेम के अंकुर का आभास होने लगा था।पर माँ को इंतज़ार था वह धीरज नहीं खोना चाहती थी इसलिए लता के जाने के बाद जब खा-पीकर माँ बिस्तर पर लेटती तो वह बहु के रूप में लता को लेकर सपने बुनती । वह यह मानने को बिलकुल भी तैयार नहीं थी कि लता कोई और वजह से घर आती है। वह मन ही मन मौक़ा तलाश कर लता या शशिकांत से बात करने की सोचती। परंतु शशिकांत के निर्णय और लता के मोहक मुस्कान के बीच वह तय नहीं कर पा रही थी कि पहले किससे पुछा जाय।
इसी उधेड़ बुन में दो-तीन हफ़्ते शायद महीना कब बीत गया पता ही नहीं चला। माँ का दिल कहता लता ज़रूर बहु बनना स्वीकार कर लेगी परंतु शशिकांत और लता के बीच की औपचारिकता उसके मन को शंकित कर देता था।
आख़िर एक दिन माँ ने हर हाल में अपनी बात कहने का निर्णय ले लिया। समय अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रहा था । शशिकांत को दूर शहर में अपने दोस्त के पास आवश्यक काम से बाहर जाना था । माँ को डर था कि इस रविवार को शशिकांत के नहीं होने की वजह से लता शायद ही आये। परंतु शशिकांत ने इसका ज़िक्र लता से किया ही नहीं था , शायद ज़िक्र करता तो लता नहीं भी आती ।
निर्धारित समय में रोशनी फिसलते - फिसलते अंधेरे में समाने आतुर थी तभी लता दबे पाँव दरवाज़ा खोलकर भीतर आई। रोशनी और अंधेरे के इस संगम का इंतज़ार कर रही माँ की आँखें चमक उठी, चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए आज माँ ने लता का अलग ही ढंग से स्वागत किया था, परंतु लता को इसका अहसास ही नहीं हुआ। सोफ़े में बैठाने की बजाय माँ ने लता का हाथ पकड़ भीतर कमरे में ले गई, अपने कमरे में। बिस्तर पर लता को बिठाते हुए माँ बिलकुल उससे सट कर बैठ गई । लता के दोनो हाथ अपने हाथों में लेकर।
माँ अपनी बात कहने किसी भूमिका की तलाश में थी तो लता , माँ के इस व्यवहार से भीतर ही भीतर व्याकुल होने लगी, दिल धड़कने लगा, बेचैनी हाथों तक पहुँचने लगी। और वह अपने हाथों को छुड़ाने की कोशिश की तो हाथों पर दबाव और बढ़ गया।
लता को अपने हाथ में बंधन महसूस होने लगा। इस बंधन से छूटने की कोशिश की तो उसे लगा कि जैसे उसका हाथ किसी बर्फ़ की सिल्ली में फँस कर रह गया है। उसने माँ की आँखो में भरपूर नज़र डाली पर माँ की नज़रें कहीं और थी , उसने अपने को ढीला छोड़ते हुए लम्बी साँस ली। तब माँ ने उसकी ओर देखते हुए हाथ ढीले किए। लता तेज़ी से बल्कि यूँ कहें कि झटके से अपना हाथ खिंचते हुए स्वयं को थोड़ा सा खिसकाया।
माँ अब भी अनिर्णय की स्थिति में थी तो लता असमंजस की स्थिति में। कमरे में अंधेरा घना होने लगा था। खिड़की से आ रही रोशनी फिसलते-फिसलते कमरे से बाहर होने लगी थी और सन्नाटा बढ़ने लगा था। तब लता ने अचानक उठ कर लाईट जला दी। कमरे में दूधिया रोशनी बिखर गई।
रोशनी के साथ ही माँ के भीतर का साहस जागने लगा। रगो में रक्त का प्रवाह तेज़ होने लगा , धड़कने तेज़ होने लगी। स्वयं को सहज करते हुए लता की आँखों में झाँकते हुए चेहरे पर मुस्कान लाई और कहा - बेटा! तुम मेरी बहु बनोगी ।
झटके से हाथ छुड़ाते हुए लता खड़ी हो गई और लगभग चीख़ते हुए बोली - मैं शादी नहीं करूँगी , मुझे बहु मत बोलिए !
लता तुम पहली लड़की हो जिसमें मैंने अपने बहु को देखा है। ग़ुस्सा मत हो, मुझ पर विश्वास करो । मेरा ध्येय तुम नहीं समझ रही हो , परंतु लता यह सब सुनने के लिए नहीं रुकी। तेज़ी से कमरे से बाहर निकली, फिर घर से भी...।
शुक्रवार, 1 मई 2020
खुलता-किवाड़ -३
रविवार के दिन लता सारी तैयारियाँ कर शशिकांत पांडे के घर सुबह-सुबह चली आई।अपने आने की वजह वह दो दिन पहले ही शशिकांत को बताकर अनुमति ले ली थी।
लता ने दरवाज़े पर दस्तक दी तो शशिकांत ने ही दरवाज़ा खोलकर एक तरफ़ होते हुए लता को भीतर चलने कहा। फिर लता को ड्राइंग रूम में बिठाकर वे भीतर चले गये।
जब तक शशिकांत ड्राइंग रूम मे वापस आते , लता ने ड्राइंग रूम का नज़रों ही नज़रों मे मुआयना कर लिया । ड्राइंग रूम के एक कोने में किताबें क़रीने से सजाईं गई थी, हालाँकि पूरा ड्राइंग रूम ही तरीक़े से सजाया गया था । वह अभी घर में किसी और की उपस्थिति का आहट लेने की कोशिश कर ही रही थी कि शशिकांत आ गये। उनके साथ एक औरत भी आई थी। जिसका परिचय शशिकांत ने माँ के रूप में देते हुए कहा था ,घर में बस वे दो लोग ही रहते हैं।
लता चौकी थी, फिर भी स्वयं को संयमित करते हुए माँ के क़दमों को छू कर आशीर्वाद लिया। वह तो शशिकांत को शादी-शुदा समझ रही थी । उसने सोचा कि वह पुछे कि शशिकांत ने विवाह क्यों नहीं किया , परंतु उसे यह सवाल स्वयं में ही अटपटा लगा था। इसलिये उसने चुप रहना ही बेहतर समझा ।
शशिकांत की माँ सोफ़े में बैठते हुए कहा - नाश्ता करोगी या करके आई हो ? लता के इंकार के बाद वह उठकर भीतर चली गई थी और जब लौटी तो उसके हाथ मे ट्रे पर चाय के दो कप और दो गिलास पानी था। इस बीच लता और शशिकांत के बीच ख़ामोशी छाई रही। ट्रे सर्व कर माँ भीतर जाते हुए इतना ही कहा था कि तुम लोग बात करो मुझे घर का सब काम निपटाना है।
चाय का कप उठाते हुए शशिकांत ने लता से कहा था , लो चाय पी लो। घर का पता ढूँढने में कोई असुविधा तो नहीं हुई।
नहीं कहते हुए लता ने कहा - असुविधा क्यों होती? आपने तो सब कुछ पहले ही बता दिया था ।
अच्छी बात है शशिकांत ने कहा था।
लता बोली- अवकाश के दिन मैं आपको परेशान करने आ गई । आपका अवकाश ख़राब हो गया।
नहीं, मैं तो अवकाश के दिन वैसे भी घर पर ही रहता हूँ। माँ भी नहीं चाहती की अवकाश के दिनो में मैं काम करूँ।
लता हँस दी। मीठी और संकोचहीन । बोली- क्या करती कालेज में सवाल का जवाब देने के लिए आपके पास समय ही नहीं रहता, इसलिये घर आ धमकी। आज सवाल का जवाब लिये बग़ैर मैं कहीं नहीं जाने वाली। आप जितनी जल्दी मुझसे मुक्ति चाहते हैं उतनी जल्दी जवाब दे दें।
बहुत ही अच्छी बात है, परंतु इस सवाल का जवाब के लिये तुम इतनी उतावली क्यों हो? यह कहते हुए शशिकांत ने लता के चेहरे पर नज़रें जमा दी थी।
लता बोली- आप जानते हैं मैं गणित की विद्यार्थी रही हूँ, कठिन से कठिन फ़ार्मुले को पढ़ी हूँ। उसे हल किया है। परंतु दो और दो पाँच क्यों नहीं होते ? इस सवाल की तरफ़ मेरा ध्यान ही नहीं गया और अब जब यह सवाल आपके मुँह से सुनी हूँ तभी से इसे हल करने की कोशिश कर रही हूँ परंतु यह हल ही नहीं हो रहा है। लगता है मेरी पूरी पढ़ाई व्यर्थ हो चली है?
शशिकांत ने इस बात की परवाह किए बिना ज़ोर से ठहाका लगाया था कि उसके ठहाके से लता को बुरा लगेगा। फिर उसने कहा था, मैंने तो उस दिन कालेज में ही कहा था कि ये जीवन के सवाल हैं जिसे गणित के फ़ार्मुले से हल नहीं किए जा सकते !
लता को शशिकांत का इस तरह से हँसना बुरा लगा था और वह मन के भीतर की प्रतिक्रिया चेहरे पर आने से नहीं रोक सकी थी, फिर भी हँसते हुए इतना ही कहा था, मुझे इस सवाल का जवाब जानना है । गणित न सही जीवन में भी दो और दो , पाँच क्यों नहीं होते?
इस बार शशिकांत गम्भीर हो गए थे । उन्होंने कहा क्या तुम ज्योतिष पर विश्वास करती हो ?
लता के चेहरे पर असमंजस के भाव देख शशिकांत ने कहा दरअसल जीवन और गणित में यहीं फ़र्क़ है। गणित में सब कुछ सुलझा होता हैं और जीवन व्यवस्थित दिखते हुए भी उलझा होता है। व्यक्ति परिवार, समाज सब कुछ उलझा होता है। और इसी से सामंजस्य बिठाने के लिए ही परम्पराएँ और मान्यताओ का सहारा लिया जाता है और इसके इतर जाने का अर्थ जीवन की व्यवस्थित राह को और कठिन कर लेना है। मानवीय प्रवृतियाँ है वह एक राह में चलते चलते ऊब जाता है इसलिए वह परम्परा और मान्यता को बोझ समझ उतार फेंकना चाहता है जबकि समय के साथ मान्यता स्वयं बदलती है, पर समय के पहले बदलाव का अर्थ प्रकृति को चुनौती देना होता है। जिस तरह से पगडंडी चौड़ी होते चली जाती है। पगडंडी कब सड़क का रूप लेगा यह निश्चित नहीं होता । आवाजाही बढ़ेगी तो पगडंडी स्वतः अपना रूप बदल लेती है। बदलाव प्रकृति का नियम है, तभी तो दिन-रात और मौसम सब कुछ आता जाता रहता है।
लता शशिकांत को ध्यान से सुन रही थी । उसे इस तरह कभी नहीं समझाया गया था । उसे यह सब अच्छा लग रहा था और शशिकांत बोले जा रहे थे। मौसम के बदलने और दिन-रात के परिवर्तन को विस्तार दे रहे थे। ज्योतिष को अब विज्ञान का दर्जा देने की बात हो रही है, कहीं-कहीं तो विज्ञान का दर्जा भी दिया जा चुका है, परंतु ज्योतिष और ग्रह नक्छ्त्र को लेकर अभी भी भ्रांतियाँ है। ठीक उसी तरह दो और दो चार के गणित में यह प्रश्न अब भी खड़ा है कि दो और दो , तीन या पाँच क्यों नहीं होते?
गणित में भले ही यह सवाल महत्वहीन हो , पर जीवन में इसका महत्व है, क्योंकि जीवन को संतुलित बनाए रखने दो और दो का चार ही रहना उचित है। तीन या पाँच होने का अर्थ असंतुलित हो जाना है। अव्यवस्थित हो जाना है। जब भी कोई व्यक्ति दो और दो को तीन और पाँच करने की कोशिश करता है, व्यवस्था का प्रश्न खड़ा हो जाता है।
भले ही रामायण में तुलसीदास जी ने समरथ को नहीं दोस गोसाई व्याख्या की हो परंतु लोकाचार में यह पूरी तरह अनुचित है। दो और दो के तीन होने का अर्थ दूसरे के मुक़ाबले में कमी होना और पाँच करने का अर्थ किसी का हक़ मारना है। और दोनो ही स्थिति में शक्ति का असंतुलन बढ़ना और विवाद पैदा होना है।
इन दिनो यही तो हो रहा है , देते संत लोग तीन और लेते समय पाँच का हिसाब करने लगे हैं।
अब तक ख़ामोशी से सब सुन रही लता बोली परंतु नैतिकता तो अब बेमानी होने लगी है, ऐसे में दो और दो चार केवल किताबों की बात रह गई है।
शशिकांत केवल मुस्कुराकर रह गया।
तभी शशिकांत की माँ भीतर आकर सोफ़े पर बैठते हुए लता से बोली- अच्छा हुआ तुम आ गई वरना इस घर में कोई झाँकना तक पसंद नहीं करता, आते रहना। इसके लिए तो घर का मतलब सिर्फ़ चारदिवारी है।
शशिकांत कुछ कहता इससे पहले लता ने ही विदा लेते हुए कहा था- चलती हूँ।
और आना... माँ ने इतना ही कहा।
लता ने दरवाज़े पर दस्तक दी तो शशिकांत ने ही दरवाज़ा खोलकर एक तरफ़ होते हुए लता को भीतर चलने कहा। फिर लता को ड्राइंग रूम में बिठाकर वे भीतर चले गये।
जब तक शशिकांत ड्राइंग रूम मे वापस आते , लता ने ड्राइंग रूम का नज़रों ही नज़रों मे मुआयना कर लिया । ड्राइंग रूम के एक कोने में किताबें क़रीने से सजाईं गई थी, हालाँकि पूरा ड्राइंग रूम ही तरीक़े से सजाया गया था । वह अभी घर में किसी और की उपस्थिति का आहट लेने की कोशिश कर ही रही थी कि शशिकांत आ गये। उनके साथ एक औरत भी आई थी। जिसका परिचय शशिकांत ने माँ के रूप में देते हुए कहा था ,घर में बस वे दो लोग ही रहते हैं।
लता चौकी थी, फिर भी स्वयं को संयमित करते हुए माँ के क़दमों को छू कर आशीर्वाद लिया। वह तो शशिकांत को शादी-शुदा समझ रही थी । उसने सोचा कि वह पुछे कि शशिकांत ने विवाह क्यों नहीं किया , परंतु उसे यह सवाल स्वयं में ही अटपटा लगा था। इसलिये उसने चुप रहना ही बेहतर समझा ।
शशिकांत की माँ सोफ़े में बैठते हुए कहा - नाश्ता करोगी या करके आई हो ? लता के इंकार के बाद वह उठकर भीतर चली गई थी और जब लौटी तो उसके हाथ मे ट्रे पर चाय के दो कप और दो गिलास पानी था। इस बीच लता और शशिकांत के बीच ख़ामोशी छाई रही। ट्रे सर्व कर माँ भीतर जाते हुए इतना ही कहा था कि तुम लोग बात करो मुझे घर का सब काम निपटाना है।
चाय का कप उठाते हुए शशिकांत ने लता से कहा था , लो चाय पी लो। घर का पता ढूँढने में कोई असुविधा तो नहीं हुई।
नहीं कहते हुए लता ने कहा - असुविधा क्यों होती? आपने तो सब कुछ पहले ही बता दिया था ।
अच्छी बात है शशिकांत ने कहा था।
लता बोली- अवकाश के दिन मैं आपको परेशान करने आ गई । आपका अवकाश ख़राब हो गया।
नहीं, मैं तो अवकाश के दिन वैसे भी घर पर ही रहता हूँ। माँ भी नहीं चाहती की अवकाश के दिनो में मैं काम करूँ।
लता हँस दी। मीठी और संकोचहीन । बोली- क्या करती कालेज में सवाल का जवाब देने के लिए आपके पास समय ही नहीं रहता, इसलिये घर आ धमकी। आज सवाल का जवाब लिये बग़ैर मैं कहीं नहीं जाने वाली। आप जितनी जल्दी मुझसे मुक्ति चाहते हैं उतनी जल्दी जवाब दे दें।
बहुत ही अच्छी बात है, परंतु इस सवाल का जवाब के लिये तुम इतनी उतावली क्यों हो? यह कहते हुए शशिकांत ने लता के चेहरे पर नज़रें जमा दी थी।
लता बोली- आप जानते हैं मैं गणित की विद्यार्थी रही हूँ, कठिन से कठिन फ़ार्मुले को पढ़ी हूँ। उसे हल किया है। परंतु दो और दो पाँच क्यों नहीं होते ? इस सवाल की तरफ़ मेरा ध्यान ही नहीं गया और अब जब यह सवाल आपके मुँह से सुनी हूँ तभी से इसे हल करने की कोशिश कर रही हूँ परंतु यह हल ही नहीं हो रहा है। लगता है मेरी पूरी पढ़ाई व्यर्थ हो चली है?
शशिकांत ने इस बात की परवाह किए बिना ज़ोर से ठहाका लगाया था कि उसके ठहाके से लता को बुरा लगेगा। फिर उसने कहा था, मैंने तो उस दिन कालेज में ही कहा था कि ये जीवन के सवाल हैं जिसे गणित के फ़ार्मुले से हल नहीं किए जा सकते !
लता को शशिकांत का इस तरह से हँसना बुरा लगा था और वह मन के भीतर की प्रतिक्रिया चेहरे पर आने से नहीं रोक सकी थी, फिर भी हँसते हुए इतना ही कहा था, मुझे इस सवाल का जवाब जानना है । गणित न सही जीवन में भी दो और दो , पाँच क्यों नहीं होते?
इस बार शशिकांत गम्भीर हो गए थे । उन्होंने कहा क्या तुम ज्योतिष पर विश्वास करती हो ?
लता के चेहरे पर असमंजस के भाव देख शशिकांत ने कहा दरअसल जीवन और गणित में यहीं फ़र्क़ है। गणित में सब कुछ सुलझा होता हैं और जीवन व्यवस्थित दिखते हुए भी उलझा होता है। व्यक्ति परिवार, समाज सब कुछ उलझा होता है। और इसी से सामंजस्य बिठाने के लिए ही परम्पराएँ और मान्यताओ का सहारा लिया जाता है और इसके इतर जाने का अर्थ जीवन की व्यवस्थित राह को और कठिन कर लेना है। मानवीय प्रवृतियाँ है वह एक राह में चलते चलते ऊब जाता है इसलिए वह परम्परा और मान्यता को बोझ समझ उतार फेंकना चाहता है जबकि समय के साथ मान्यता स्वयं बदलती है, पर समय के पहले बदलाव का अर्थ प्रकृति को चुनौती देना होता है। जिस तरह से पगडंडी चौड़ी होते चली जाती है। पगडंडी कब सड़क का रूप लेगा यह निश्चित नहीं होता । आवाजाही बढ़ेगी तो पगडंडी स्वतः अपना रूप बदल लेती है। बदलाव प्रकृति का नियम है, तभी तो दिन-रात और मौसम सब कुछ आता जाता रहता है।
लता शशिकांत को ध्यान से सुन रही थी । उसे इस तरह कभी नहीं समझाया गया था । उसे यह सब अच्छा लग रहा था और शशिकांत बोले जा रहे थे। मौसम के बदलने और दिन-रात के परिवर्तन को विस्तार दे रहे थे। ज्योतिष को अब विज्ञान का दर्जा देने की बात हो रही है, कहीं-कहीं तो विज्ञान का दर्जा भी दिया जा चुका है, परंतु ज्योतिष और ग्रह नक्छ्त्र को लेकर अभी भी भ्रांतियाँ है। ठीक उसी तरह दो और दो चार के गणित में यह प्रश्न अब भी खड़ा है कि दो और दो , तीन या पाँच क्यों नहीं होते?
गणित में भले ही यह सवाल महत्वहीन हो , पर जीवन में इसका महत्व है, क्योंकि जीवन को संतुलित बनाए रखने दो और दो का चार ही रहना उचित है। तीन या पाँच होने का अर्थ असंतुलित हो जाना है। अव्यवस्थित हो जाना है। जब भी कोई व्यक्ति दो और दो को तीन और पाँच करने की कोशिश करता है, व्यवस्था का प्रश्न खड़ा हो जाता है।
भले ही रामायण में तुलसीदास जी ने समरथ को नहीं दोस गोसाई व्याख्या की हो परंतु लोकाचार में यह पूरी तरह अनुचित है। दो और दो के तीन होने का अर्थ दूसरे के मुक़ाबले में कमी होना और पाँच करने का अर्थ किसी का हक़ मारना है। और दोनो ही स्थिति में शक्ति का असंतुलन बढ़ना और विवाद पैदा होना है।
इन दिनो यही तो हो रहा है , देते संत लोग तीन और लेते समय पाँच का हिसाब करने लगे हैं।
अब तक ख़ामोशी से सब सुन रही लता बोली परंतु नैतिकता तो अब बेमानी होने लगी है, ऐसे में दो और दो चार केवल किताबों की बात रह गई है।
शशिकांत केवल मुस्कुराकर रह गया।
तभी शशिकांत की माँ भीतर आकर सोफ़े पर बैठते हुए लता से बोली- अच्छा हुआ तुम आ गई वरना इस घर में कोई झाँकना तक पसंद नहीं करता, आते रहना। इसके लिए तो घर का मतलब सिर्फ़ चारदिवारी है।
शशिकांत कुछ कहता इससे पहले लता ने ही विदा लेते हुए कहा था- चलती हूँ।
और आना... माँ ने इतना ही कहा।
गुरुवार, 30 अप्रैल 2020
खुलता-किवाड़ -२
दूसरे दिन स्टाफ़ रूम में लता ने शशिकांत पांडे को बैठे देखा तो दो और दो का सवाल पुनः उसके दिलों दिमाग़ में कौंध गया। वह तेज़ी से आगे बढ़ते हुए शशिकांत के ठीक बग़ल की कुर्सी में बैठ गई । परंतु शशिकांत इन सब बातों से बेपरवाह किताब में उलझा हुआ था ।
लता अब भी सवालों में उलझी सोच रही थी कि बात कहाँ से शुरू करूँ? सीधे सवाल करना उसे अटपटा लग रहा था, फिर इतने दिनो में वह शशिकांत से औपचारिक अभिवादन के अलावा कभी कोई बात भी कहाँ की थी। हालाँकि गणित के दूसरे टीचरो की तरह उसके मन में सबसे श्रेष्ठ का ख़्याल कभी नहीं आया था, उसकी नज़र में सबके प्रति सम्मान भाव एक सा था।
झिझकते हुए लता ने शशिकांत की तरफ़ मुख़ातिब होते हुए कहा था, सर! मुझे आपसे एक सवाल को लेकर डिस्कस करनी है।
हाँ क्यों नहीं। पूछिए? शशिकांत ने तब इतना ही कहा था ।
शशिकांत के इतना कहते ही लता ने भूमिका बाँधते हुए कहना शुरू किया-सर, कल आप स्टूडेण्ट्स लोगों को दो ही दो चार ही क्यों? तीन या पाँच क्यों नहीं का सवाल कर रहे थे ।
हाँ, लेकिन यह गणित का नहीं जीवन का सवाल था । शशिकांत ने सहज रूप से जवाब दिया था ।
मैं इस बारे में ही आपसे चर्चा करना चाह रही थी । लता इतना कहकर चुप हो गई ।
शशिकांत ने विनम्रता से कहा इसमें चर्चा की क्या बात है? जीवन के सवालों का उत्तर गणित की तरह निर्धारित नहीं होते हैं, गणित में जिस तरह से उत्तर निश्चित होते है परंतु जीवन में न सवाल निश्चित होते है , न ही उसके जवाब ही निश्चित है। समय के साथ सवालऔर जवाब बदलते रहते हैं। जिस तरह से नक़ली सोना को चोर नक़ली समझ कर चुराये, तो उसका नक़ली सोना होना सार्थक हो जाता है , उसी तरह जीवन जीने के अपने-अपने मापदंड के बाद भी समाज- परिवार की परम्परा को न चाहते हुए भी निभाना ज़रूरी है।
परंतु लता तो अब भी दो और दो के सवाल का सीधे उत्तर चाह रही थी , इसलिये उसने कहा था पांडे जी मैं तो सिर्फ़ यह जानना चाह रही हूँ कि दो और दो , तीन या पाँच क्यों नहीं होते ?
शशिकांत के चेहरे में मुस्कान बिखर गई । उसने कहा दो और दो चार होते है , यह तो गणित के मान्य नियम है और अब तक इस मान्यता को किसी ने चुनौती नहीं दी है इसलिये हम सब यह मान बैठे है । जैसे तुम लता हो ? माँ-बाप ने नाम रख दिया , और सबने स्वीकार कर लिया परंतु क्या तुमने कभी यह सोचा कि तुम लता ही क्यों हो ? विचार करना , तुम जया या रमा क्यों नहीं हो ? तुम्हें तुम्हारे सवालों का जवाब मिल जाएगा । यह कहते हुए शशिकांत पिरिएड में जाने की बात कहते हुए कुर्सी से उठकर चले गये।
लता अब भी अवाक् बैठे रही। शशिकांत की बात उसके पल्ले नहीं पड़ी थी , वह सोचने लगी कि कैसा व्यक्ति है यह ? सीधा-सीधा जवाब देने की बजाय शब्दों की बाज़ीगरी कर रहा है। दो और दो चार ही होते हैं तब तीन और पाँच नहीं होने का सवाल क्यों? परंतु सवाल यदि उठाया गया है तो इसका जवाब भी होगा, वह स्वयं ही जवाब ढूँढने की कोशिश करने लगी ।
लता के जीवन में यह पहला सवाल था जिसकी कठिनाई उसे भीतर तक महसूस हो रही थी। वह सोच रही थी कि आख़िर यह सवाल उसके मन में आज तक क्यों नहीं आया । दो और दो चार तो उसे पहली क्लास में ही रटा दिया गया था। तब गुरुजी ने पहले दो सीधी लकीर खिचवाई थी और फिर एक शून्य बनवाकर दो और लकीर खिचवाकर सभी लकीरों को गिनवा दिया था । वह भी लकीर गिनकर चार लिख दी थी। और गुरुजी ख़ुश हो गये थे।
पर यह क्या तीन और पाँच क्यों नहीं होते? यह कैसा सवाल है ? फिर पांडे जी इसका सीधा जवाब देने की बजाय इतना घुमा-फिरा क्यों रहे हैं ? इसका कुछ तो जवाब होगा?
लता के लिए इस सवाल का जवाब जानना ज़रूरी हो गया था। वह इस सवाल में बुरी क़दर उलझ गई थी, उसने हर तरफ़ से जवाब जानने की कोशिश की। यहाँ तक कि अब तक पढ़े फ़ार्मुले को भी खंगाल लिया परंतु वह इस सवाल को नहीं सुलझा पा रही थी। जो उत्तर मन में निकलते वह उससे संतुष्ट ही नहीं हो रही थी ।
उसने तय कर लिया कि वह शशिकांत से इस सवाल का जवाब ज़रूर पूछेगी । लता को सवाल ने इस क़दर उलझा दिया था कि वह शशिकांत के घर जाकर जवाब पूछने की सोच ली।
लता अब भी सवालों में उलझी सोच रही थी कि बात कहाँ से शुरू करूँ? सीधे सवाल करना उसे अटपटा लग रहा था, फिर इतने दिनो में वह शशिकांत से औपचारिक अभिवादन के अलावा कभी कोई बात भी कहाँ की थी। हालाँकि गणित के दूसरे टीचरो की तरह उसके मन में सबसे श्रेष्ठ का ख़्याल कभी नहीं आया था, उसकी नज़र में सबके प्रति सम्मान भाव एक सा था।
झिझकते हुए लता ने शशिकांत की तरफ़ मुख़ातिब होते हुए कहा था, सर! मुझे आपसे एक सवाल को लेकर डिस्कस करनी है।
हाँ क्यों नहीं। पूछिए? शशिकांत ने तब इतना ही कहा था ।
शशिकांत के इतना कहते ही लता ने भूमिका बाँधते हुए कहना शुरू किया-सर, कल आप स्टूडेण्ट्स लोगों को दो ही दो चार ही क्यों? तीन या पाँच क्यों नहीं का सवाल कर रहे थे ।
हाँ, लेकिन यह गणित का नहीं जीवन का सवाल था । शशिकांत ने सहज रूप से जवाब दिया था ।
मैं इस बारे में ही आपसे चर्चा करना चाह रही थी । लता इतना कहकर चुप हो गई ।
शशिकांत ने विनम्रता से कहा इसमें चर्चा की क्या बात है? जीवन के सवालों का उत्तर गणित की तरह निर्धारित नहीं होते हैं, गणित में जिस तरह से उत्तर निश्चित होते है परंतु जीवन में न सवाल निश्चित होते है , न ही उसके जवाब ही निश्चित है। समय के साथ सवालऔर जवाब बदलते रहते हैं। जिस तरह से नक़ली सोना को चोर नक़ली समझ कर चुराये, तो उसका नक़ली सोना होना सार्थक हो जाता है , उसी तरह जीवन जीने के अपने-अपने मापदंड के बाद भी समाज- परिवार की परम्परा को न चाहते हुए भी निभाना ज़रूरी है।
परंतु लता तो अब भी दो और दो के सवाल का सीधे उत्तर चाह रही थी , इसलिये उसने कहा था पांडे जी मैं तो सिर्फ़ यह जानना चाह रही हूँ कि दो और दो , तीन या पाँच क्यों नहीं होते ?
शशिकांत के चेहरे में मुस्कान बिखर गई । उसने कहा दो और दो चार होते है , यह तो गणित के मान्य नियम है और अब तक इस मान्यता को किसी ने चुनौती नहीं दी है इसलिये हम सब यह मान बैठे है । जैसे तुम लता हो ? माँ-बाप ने नाम रख दिया , और सबने स्वीकार कर लिया परंतु क्या तुमने कभी यह सोचा कि तुम लता ही क्यों हो ? विचार करना , तुम जया या रमा क्यों नहीं हो ? तुम्हें तुम्हारे सवालों का जवाब मिल जाएगा । यह कहते हुए शशिकांत पिरिएड में जाने की बात कहते हुए कुर्सी से उठकर चले गये।
लता अब भी अवाक् बैठे रही। शशिकांत की बात उसके पल्ले नहीं पड़ी थी , वह सोचने लगी कि कैसा व्यक्ति है यह ? सीधा-सीधा जवाब देने की बजाय शब्दों की बाज़ीगरी कर रहा है। दो और दो चार ही होते हैं तब तीन और पाँच नहीं होने का सवाल क्यों? परंतु सवाल यदि उठाया गया है तो इसका जवाब भी होगा, वह स्वयं ही जवाब ढूँढने की कोशिश करने लगी ।
लता के जीवन में यह पहला सवाल था जिसकी कठिनाई उसे भीतर तक महसूस हो रही थी। वह सोच रही थी कि आख़िर यह सवाल उसके मन में आज तक क्यों नहीं आया । दो और दो चार तो उसे पहली क्लास में ही रटा दिया गया था। तब गुरुजी ने पहले दो सीधी लकीर खिचवाई थी और फिर एक शून्य बनवाकर दो और लकीर खिचवाकर सभी लकीरों को गिनवा दिया था । वह भी लकीर गिनकर चार लिख दी थी। और गुरुजी ख़ुश हो गये थे।
पर यह क्या तीन और पाँच क्यों नहीं होते? यह कैसा सवाल है ? फिर पांडे जी इसका सीधा जवाब देने की बजाय इतना घुमा-फिरा क्यों रहे हैं ? इसका कुछ तो जवाब होगा?
लता के लिए इस सवाल का जवाब जानना ज़रूरी हो गया था। वह इस सवाल में बुरी क़दर उलझ गई थी, उसने हर तरफ़ से जवाब जानने की कोशिश की। यहाँ तक कि अब तक पढ़े फ़ार्मुले को भी खंगाल लिया परंतु वह इस सवाल को नहीं सुलझा पा रही थी। जो उत्तर मन में निकलते वह उससे संतुष्ट ही नहीं हो रही थी ।
उसने तय कर लिया कि वह शशिकांत से इस सवाल का जवाब ज़रूर पूछेगी । लता को सवाल ने इस क़दर उलझा दिया था कि वह शशिकांत के घर जाकर जवाब पूछने की सोच ली।
बुधवार, 29 अप्रैल 2020
‘ खुलता-किवाड़ ‘ - १
लता के लिये यह सवाल सचमुच चौंकाने वाला था। वह सवाल सुन ठिठक गई थी । पाँव जैसे ज़मीन पर जम गये थे। उसने गणित में पीएचडी करने के बाद महाविद्यालय में नौकरी करते हुए एकाकी जीवन जीने का निर्णय लिया था । उसके इस निर्णय को लेकर मम्मी-पापा यहाँ तक कि भाई ललित ने भी विरोध किया था। लता को समझाने की कोशिश अब भी जारी थी। परंतु लता ने तो जैसे तय कर लिया था , हमेशा अपने निर्णय पर अडिग और कुशाग्र बुद्धि की लता को लेकर मोहल्ले में भी उसके इस निर्णय की चर्चा कम नहीं होती थी, परिवार , समाज में भी उसे समझाने की कितनी ही कोशिश नहीं हुई ? परंतु लता को इन बातों कीजैसे परवाह ही नहीं थी। चाँद सा सुंदर चेहरा और बड़ी-बड़ी आँखे लता के व्यक्तित्व को निखारने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखा था।
विजय और सुषमा की यह लाड़ली शुरू से ही पढ़ाई में होशियार थी, और इन दिनो वह शहर के सबसे प्रतिष्ठित विक्टर कालेज में गणित के प्रोफ़ेसर के रूप में नौकरी कर रही थी। कालेज में पढ़ाते उसे दो माह हो गये थे और इन दो माह में उसने अपने कार्य और व्यवहार से सभी का मन जीत लिया था।
आज भी वह अपना पहला पिरिएड समाप्त करने के बाद दूसरे पिरिएड के लिये जल्दी-जल्दी रूम नम्बर ३६ की ओर बढ़ रही थी, तभी रूम नम्बर १९ से यह सवाल उसके कान से होते हुए मस्तिष्क तक जा पहुँचा । सवाल सुन कर वह चौकी ही नहीं थी , उसके क़दम भी रुक गये थे।
लता ने दरवाज़े के किनारे से झाँकने की कोशिश की तो शशिकांत पांडे की नज़र भी उस पर पड़ गई। वह हड़बड़ा गई थी , और इस हड़बड़ी में वह तेज़ी से आगे बढ़ गई। परंतु सवाल अब भी उसके मस्तिष्क में गूँज रहा था, कि आख़िर दो और दो चार क्यों होते हैं, तीन या पाँच क्यों नहीं होते ।
लता क्लास रूम में पहुँच गई थी और लेक्चर देने भी लगी, परंतु उसका ध्यान इस सवाल से हट ही नहीं पाया। इस सवाल के साथ उसके मस्तिष्क पर एक और सवाल तैर रहा था कि आख़िर शशिकांत पांडे जी हिंदी की बजाय गणित के ऐसे सवाल क्यों कर रहे थे? वह शशिकांत पांडे जी के बारे में इतना ही जानती थी कि वे हिंदी के न केवल प्रखंड विद्वान हैं बल्कि उनकी कई किताबें स्कूलों में पढ़ाई जाती है। कालेज के बाद बचे समय पर वे पुरोहिती या ज्योतिष का कार्य भी करते हैं।
लता को अभी दो पिरिएड और लेने थे परंतु उसका ध्यान तो दो और दो चार पर ही उलझ गया था। उसने कितनी ही बार इस सवाल को झिढ़कने की कोशिश भी की । वह जब तीसरा और चौथा पिरिएड लेकर स्टाफ़ रूम में पहुँची तो , उसने शशिकांत से इस सवाल को लेकर चर्चा करने की सोच ली थी , परंतु यह क्या स्टाफ़ रूम में शशिकांत नहीं थे। उसने शशिकांत के आने की प्रतीक्षा करने की सोच पास ही रखी पत्रिका उठाकर कुर्सी पर बैठ गई, और पत्रिका का पन्ने पलटने लगी परंतु उसका ध्यान दरवाज़े पर ही लगा रहा। उसका ध्यान तब टूटा जब मीना मैडम की आवाज़ आई, अरे लता आज घर नहीं जाना है क्या ? वह चौंकी ! उसे कुर्सी पर बैठे आधा घंटे हो गए थे । उसने हड़बड़ी में पत्रिका बाज़ू की कुर्सी में रखते हुए कहा था , पांडे जी से कुछ चर्चा करनी है। मीना ने तपाक से जवाब दिया था, वे तो कब से चले गये हैं ।
लता के चेहरे पर झुँझलाहट साफ़ देखी जा सकती थी । वह अपना बैग उठाते हुए स्टाफ़ रूम से बाहर निकल गई । सवाल के चक्कर में लता को इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि पांडे जी हर रोज़ पहले ही चले जाते हैं । रास्ते भर लता सवाल में ही उलझी रही। उसे याद नहीं पड़ रहा था कि उसने दो और दो चार ही क्यों? का सवाल किसी क्लास में पढ़ा हो? वह बार-बार यही सोच रही थी कि यह कैसा सवाल है? दो और दो तीन या पाँच क्यों नहीं ? चार ही क्यों ?
गणित में टॉप करने वाली लता इस सवाल में ऐसा उलझ गई थी कि उसे पता ही नहीं चला कि घर कब पहुँच गई। घर आकर वह नियमित दिनचर्या में जुट गई और सवाल काफ़ी पीछे छूट गया था। हालाँकि सवाल के छूटने की वजह लता का वह निर्णय था कि अब वह कल सीधे शशिकांत से चर्चा कर लेगी।
लता का यह स्वभाव था कि वह अपने निर्णय पर मूड कर नहीं देखती थी । वर्तमान को अच्छी तरह से जीने वाली लता की दिनचर्या में शाम का खाना बनाना शामिल था । वह जब पढ़ाई के दौरान कालेज पहुँची थी , तभी से घर के काम में हाथ बँटाने लगी थी और जब ग्रेजुएट की पढ़ाई पूरी की तब उसने अपना निर्णय सुना दिया था कि अब से वह शाम का खाना स्वयं बनाएगी । तब मम्मी-पापा दोनो ने मना किया था परंतु लता ने साफ़ कह दिया था कि वह खाना बनाएगी। तब से वह शाम का खाना बनाने लगी थी ।
मंगलवार, 28 अप्रैल 2020
अपनी बात
‘ खुलता-किवाड़ ‘ स्त्री -पुरुष सम्बंध को लेकर समाज में आये बदलाव की कहानी है । शादी नहीं करने का निर्णय लेने वाली लता एक व्यक्ति से प्रेम करने लगती है , तब वह परिवार - समाज, संस्कार को कितना निभा पाती है । वेदना-संवेदना के बीच समाज में आये बदलाव में परम्पराएँ कैसे चूर-चूर हो जाती है , यही सब इस उपन्यास का आधार है ।
परिवार और समाज के ताने -बाने में बँधा भारतीय समाज में अब किस तरह से परिवर्तन हो रहा है । बच्चों की ख़ुशी के लिये क्या तंज सामाजिक ताने-बाने को ढीला किया जा रहा है । खुलता-किवाड़ के माध्यम से बदलती परम्परा को समझने की कोशिश है ।
कौशल तिवारी
प्रतिक्रिया
फ़ेसबुक पर कवर पेज के बाद कुछ प्रतिक्रिया भी मिलनी शुरू हुई ...
परिवार और समाज के ताने -बाने में बँधा भारतीय समाज में अब किस तरह से परिवर्तन हो रहा है । बच्चों की ख़ुशी के लिये क्या तंज सामाजिक ताने-बाने को ढीला किया जा रहा है । खुलता-किवाड़ के माध्यम से बदलती परम्परा को समझने की कोशिश है ।
कौशल तिवारी
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सोमवार, 27 अप्रैल 2020
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