सोमवार, 11 मई 2020

खुलता-किवाड़ -१३

लता घर लौट आई थी? क्या लता सचमुच लौट आई थी ? हाँ वह अपने घर तो लौट आई थी लेकिन वह वर्तमान परिस्थिति को लेकर जूझती रही । वह न अनिता के दूर चले जाने की चेतावनी को भूल पा रही थी न अपने प्यार को । वह इतनी आसानी से कैसे हार जाती। वह रात में शशिकांत के साथ बिताए एक-एक पल को जोड़ती रही। लता पूरी तरह से बदल चुकी थी। उसने निर्णय ले लिया था। सुबह नींद खुली तो वह तरोताज़ा महसूस कर रही थी। वह किचन में गई । मम्मी से कहा चाय बना देती हूँ । चाय का कप लिये आँगन में आई। कुम्हलाये पौधों को सँवारा, सूखे और बेकार पत्तों को अलग किया , फिर खाद दिया, पानी दी,तो गुलाब मुस्कुराने लगा। मम्मी पापा के चेहरे भी।
किचन में गई , मम्मी का हाथ बटाने लगी , फिर अपने कमरे में जाकर सब कुछ व्यवस्थित करने लगी , सजाने लगी। तैयार होकर नाश्ता किया। फिर कालेज चली गई। कालेज से लौटकर फिर वह घर के काम में व्यस्त हो गई। जीवन महकने लगा , वह फिर से गीत गुनगुनाने लगी। प्रेम का गीत। ऐसा गीत जो आशाओं का आकाश उठाए हुए था। उस आदमी के लिए जो उसे बेइंतहा प्रेम किया है। वह डायरी खोलती, उस आदमी का नाम लिखती। उस नाम पर ऊँगली फेरती, चूमती और शरमा जाती।
एक दिन, दो दिन, तीन... पूरे हफ़्ते वह यही सब करते रही । पता नहीं जिस दिन से लता उस आदमी के घर से आई थी क्या जुनून सवार हो गया था कि वह घर के हर काम को मन लगाकर करने लगी थी , दुनियादारी की छोटी-छोटी चीज़ें सीखने की कोशिश करती। 
लता के इस बदलते व्यवहार की घर पर भी चर्चा होती। लता ने कई बार महसूस भी किया था कि उसके बारे में बात की जा रही है । कभी कभी वह मम्मी पापा के पास जाकर बैठ जाती , लता के सिर पर पापा हाथ फेर देते , लता को यह सब बहुत अच्छा लगता। बाद में अपने कमरे में आकर लता सोचती वह इतने प्यार करने वाले मम्मी पापा से कैसे दूर रह सकती है। 
लता के लिए किसी को भी छोड़ना आसान नहीं था। लता के मन में एक बोझ , बेबसी घर कर जाती , फिर वह इसे झटक देती । उस आदमी को लेकर लता ने निर्णय ले लिया था। मम्मी पापा को अपने निर्णय से अवगत कराने का अवसर ढूँढ रही थी। फिर वह दिन आ गया जब लता ने मम्मी पापा के सामने अपना इरादा खोलकर बैठ गई। लता ने कोई भूमिका नहीं बाँधी। जैसे कोई शपथ पत्र दाख़िल करता है । सीधे -सीधे कहा- मैं शशिकांत को भूल नहीं पा रही , उसके बग़ैर जी नहीं सकती । मुझे उसके साथ रहना ही होगा। मेरी ख़ुशी के लिए आपलोगो को अनुमति देनी होगी। मैं आप लोगों को भी नहीं छोड़ सकती।इसलिए उस आदमी को मैं इसी घर में लाना चाहती हूँ। 
लता अपने रौ में बोलते जा रही थी। अपने मन को खोल दिया था। मन का बोझ उतर गया था। लता की पीड़ा आँखो से बहने लगी।
सब कुछ सुनकर भी मम्मी पापा इस बार चुप रहे। जैसे वे लता के इस निर्णय पर सहमति का मुहर लगाने तैयार हो गए हों। मम्मी उठकर भीतर कमरे में चली गई तो पापा भी सोफ़े से उठे , मगर वे दरवाज़े से लौट आए। लता के बग़ल में बैठे। सिर पे हाथ फेरते हुए कहा - बेटी तुम्हारी ख़ुशी से बढ़कर हमारे लिए कुछ भी नहीं है , मगर मेरा कहना है कोई भी निर्णय लेने से पहले सिर्फ़ एक बार और सोच लेना, हम लोगों के बारे में अनिता के बारे में । इतना कहकर पापा अपने कमरे में चले गए। लता भी चुपचाप अपने कमरे में आ गई। कमरे में अंधेरा था, उसने लाईट जलाने की कोशिश नहीं की , धम्म से बिस्तर पर पसर गई और बुदबुदाई - मेरा इंतज़ार करना शशिकांत . मैं कल आ रही हूँ...।
( समाप्त )

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