क्या कोई इंसान अपने लिए जीता है। घर , परिवार, समाज कोई मायने नहीं रखता । फिर वह शशिकांत को लेकर इतनी चिंतित क्यों है? पता नहीं क्यों? लता उस आदमी की जीवन- शैली को लेकर परेशान हो जाती थी, और शशिकांत , उसे तो जैसे इन सबसे कोई मतलब ही नहीं था , अपनी धुन में बेपरवाह ! लता ने भी तय कर लिया था कि अब वह शशिकांत से कोई वास्ता नहीं रखेगी । मगर जीवन मे हर चीज़ वैसा नहीं होता, जैसा हम सोचते हैं। कई बार वक़्त आदमी को मजबूर कर देता है, और न चाहते हुए भी हमें उस राह पर चलना होता है जो कभी बेमानी समझा जाता है।
लता का कोई वास्ता नहीं रखने का निश्चय की दृढ़ता शशिकांत के सामने आते ही कमज़ोर पड़ जाती थी। उसने बहुत कोशिश की स्वयं को मज़बूत बनाए रखने की । वह कोशिश करती कि उसका शशिकांत से सामना न हो परंतु वह उसे देखने की भी इच्छा रखती थी। अजीब सा अंतर्द्वंद था।
लता ने कितनी ही बार सोचा कि वह शशिकांत से पुछे कि माँ के जाने के बाद उसके खाना-पीना कैसे हो रहा हाई। माँ ने एक बार बताया था कि पता नहीं इस लड़के का क्या होगा, गरम पानी तक नहीं कर सकता है। शादी के नाम से चिढ़ता है। मेरे जाने के बाद कैसे जिएगा?
लता इन दिनो शशिकांत को लेकर कुछ ज़्यादा ही सोचने लगी थी । वह कोई कवयित्री नहीं थी, परंतु कविता करने लगी थी। उसका मन होता था कि वह इस बारे में किसी से चर्चा करें , किसी को बता दें। धीरे - धीरे वह स्वयं से दूर होती जा रही थी । मानो उसके पास सिवाय उस आदमी के कुछ नहीं था। खाने-पीने की रुचि तो जाते ही रही थी। यहाँ तक कि अपने सबसे पसंदीदा गुपचुप चाट तक वह कई दिनो से नहीं खाई थी। घर के गमलो के गुलाब सुखने लगे थे। कमरे के कोने में मकड़ियाँ जाले बुनना शुरू कर दिया था। जैसे-तैसे वह कालेज के लिए तैयार हो पाती थी , सब कुछ अव्यवस्थित हो चला था।
उसने कितनी ही कोशिश की थी शशिकांत से प्रश्न पुछने की । परंतु सामने पड़ते ही सारे प्रश्न भूल जाती । केवल औपचारिक अभिवादन और मुस्कुराने के अलावा बात आगे ही नहीं बढ़ पा रही थी ।
एक दिन, दूसरे दिन फिर तीसरे, चौथे, पाँचवे... इस तरह से दिन गुज़र रहे थे । लता को समझ नहीं आ रहा था वह शशिकांत से बात कैसे करे, वह उसके आँखो में झाँकने की कोशिश करती पर शशिकांत के देखते ही चेहरा घुमा लेती फिर यही कोशिश होती, बार-बार होती!
फिर एक रविवार , लता ने स्वयं को तैयार किया, अपने सबसे पसंदीदा कलर की साड़ी पहनी, बाल सँवारे आइने में स्वयं को देर तक निहारा और घर से निकल गई । रास्ते में उसने गुलाब का एक पौधा ख़रीदा, छोटे से गमले सहित सूरज की किरणो को हाथ में पकड़ने की कोशिश में अपनी परछाईंयों के साथ शशिकांत के दरवाज़े के सामने खड़ी हो गई। दरवाज़े पर दस्तक दी तो एक पट थोड़ा सा खुला शशिकांत का चेहरा सामने था । वह मुस्कुराया और पूरा दरवाज़ा खोल दिया, लता भीतर समाते चली गई ।
जब वह पहली बार आई थी तब भी दरवाज़ा शशिकांत ने ही खोला था । तब लता के लिए सब कुछ अपरिचित था, मगर आज पूरा घर लता को ऐसा लग रहा था जैसा वह दस पंद्रह दिनो की छुट्टियाँ मनाकर अपना घर लौटी है , जैसा छोड़कर वह गई थी बिलकुल वैसा ही।
लता ने गमले सहित गुलाब के पौधे को उसे देते हुए कहा, इसे रोज़ पानी दे दिया करो , कभी इसमें खाद भी डाल देना , शशिकांत ने उससे गमला लेते हुए बैठने को कहा फिर वह भी लता के पास ही बैठ गया।
लता का कोई वास्ता नहीं रखने का निश्चय की दृढ़ता शशिकांत के सामने आते ही कमज़ोर पड़ जाती थी। उसने बहुत कोशिश की स्वयं को मज़बूत बनाए रखने की । वह कोशिश करती कि उसका शशिकांत से सामना न हो परंतु वह उसे देखने की भी इच्छा रखती थी। अजीब सा अंतर्द्वंद था।
लता ने कितनी ही बार सोचा कि वह शशिकांत से पुछे कि माँ के जाने के बाद उसके खाना-पीना कैसे हो रहा हाई। माँ ने एक बार बताया था कि पता नहीं इस लड़के का क्या होगा, गरम पानी तक नहीं कर सकता है। शादी के नाम से चिढ़ता है। मेरे जाने के बाद कैसे जिएगा?
लता इन दिनो शशिकांत को लेकर कुछ ज़्यादा ही सोचने लगी थी । वह कोई कवयित्री नहीं थी, परंतु कविता करने लगी थी। उसका मन होता था कि वह इस बारे में किसी से चर्चा करें , किसी को बता दें। धीरे - धीरे वह स्वयं से दूर होती जा रही थी । मानो उसके पास सिवाय उस आदमी के कुछ नहीं था। खाने-पीने की रुचि तो जाते ही रही थी। यहाँ तक कि अपने सबसे पसंदीदा गुपचुप चाट तक वह कई दिनो से नहीं खाई थी। घर के गमलो के गुलाब सुखने लगे थे। कमरे के कोने में मकड़ियाँ जाले बुनना शुरू कर दिया था। जैसे-तैसे वह कालेज के लिए तैयार हो पाती थी , सब कुछ अव्यवस्थित हो चला था।
उसने कितनी ही कोशिश की थी शशिकांत से प्रश्न पुछने की । परंतु सामने पड़ते ही सारे प्रश्न भूल जाती । केवल औपचारिक अभिवादन और मुस्कुराने के अलावा बात आगे ही नहीं बढ़ पा रही थी ।
एक दिन, दूसरे दिन फिर तीसरे, चौथे, पाँचवे... इस तरह से दिन गुज़र रहे थे । लता को समझ नहीं आ रहा था वह शशिकांत से बात कैसे करे, वह उसके आँखो में झाँकने की कोशिश करती पर शशिकांत के देखते ही चेहरा घुमा लेती फिर यही कोशिश होती, बार-बार होती!
फिर एक रविवार , लता ने स्वयं को तैयार किया, अपने सबसे पसंदीदा कलर की साड़ी पहनी, बाल सँवारे आइने में स्वयं को देर तक निहारा और घर से निकल गई । रास्ते में उसने गुलाब का एक पौधा ख़रीदा, छोटे से गमले सहित सूरज की किरणो को हाथ में पकड़ने की कोशिश में अपनी परछाईंयों के साथ शशिकांत के दरवाज़े के सामने खड़ी हो गई। दरवाज़े पर दस्तक दी तो एक पट थोड़ा सा खुला शशिकांत का चेहरा सामने था । वह मुस्कुराया और पूरा दरवाज़ा खोल दिया, लता भीतर समाते चली गई ।
जब वह पहली बार आई थी तब भी दरवाज़ा शशिकांत ने ही खोला था । तब लता के लिए सब कुछ अपरिचित था, मगर आज पूरा घर लता को ऐसा लग रहा था जैसा वह दस पंद्रह दिनो की छुट्टियाँ मनाकर अपना घर लौटी है , जैसा छोड़कर वह गई थी बिलकुल वैसा ही।
लता ने गमले सहित गुलाब के पौधे को उसे देते हुए कहा, इसे रोज़ पानी दे दिया करो , कभी इसमें खाद भी डाल देना , शशिकांत ने उससे गमला लेते हुए बैठने को कहा फिर वह भी लता के पास ही बैठ गया।
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