रविवार के दिन लता सारी तैयारियाँ कर शशिकांत पांडे के घर सुबह-सुबह चली आई।अपने आने की वजह वह दो दिन पहले ही शशिकांत को बताकर अनुमति ले ली थी।
लता ने दरवाज़े पर दस्तक दी तो शशिकांत ने ही दरवाज़ा खोलकर एक तरफ़ होते हुए लता को भीतर चलने कहा। फिर लता को ड्राइंग रूम में बिठाकर वे भीतर चले गये।
जब तक शशिकांत ड्राइंग रूम मे वापस आते , लता ने ड्राइंग रूम का नज़रों ही नज़रों मे मुआयना कर लिया । ड्राइंग रूम के एक कोने में किताबें क़रीने से सजाईं गई थी, हालाँकि पूरा ड्राइंग रूम ही तरीक़े से सजाया गया था । वह अभी घर में किसी और की उपस्थिति का आहट लेने की कोशिश कर ही रही थी कि शशिकांत आ गये। उनके साथ एक औरत भी आई थी। जिसका परिचय शशिकांत ने माँ के रूप में देते हुए कहा था ,घर में बस वे दो लोग ही रहते हैं।
लता चौकी थी, फिर भी स्वयं को संयमित करते हुए माँ के क़दमों को छू कर आशीर्वाद लिया। वह तो शशिकांत को शादी-शुदा समझ रही थी । उसने सोचा कि वह पुछे कि शशिकांत ने विवाह क्यों नहीं किया , परंतु उसे यह सवाल स्वयं में ही अटपटा लगा था। इसलिये उसने चुप रहना ही बेहतर समझा ।
शशिकांत की माँ सोफ़े में बैठते हुए कहा - नाश्ता करोगी या करके आई हो ? लता के इंकार के बाद वह उठकर भीतर चली गई थी और जब लौटी तो उसके हाथ मे ट्रे पर चाय के दो कप और दो गिलास पानी था। इस बीच लता और शशिकांत के बीच ख़ामोशी छाई रही। ट्रे सर्व कर माँ भीतर जाते हुए इतना ही कहा था कि तुम लोग बात करो मुझे घर का सब काम निपटाना है।
चाय का कप उठाते हुए शशिकांत ने लता से कहा था , लो चाय पी लो। घर का पता ढूँढने में कोई असुविधा तो नहीं हुई।
नहीं कहते हुए लता ने कहा - असुविधा क्यों होती? आपने तो सब कुछ पहले ही बता दिया था ।
अच्छी बात है शशिकांत ने कहा था।
लता बोली- अवकाश के दिन मैं आपको परेशान करने आ गई । आपका अवकाश ख़राब हो गया।
नहीं, मैं तो अवकाश के दिन वैसे भी घर पर ही रहता हूँ। माँ भी नहीं चाहती की अवकाश के दिनो में मैं काम करूँ।
लता हँस दी। मीठी और संकोचहीन । बोली- क्या करती कालेज में सवाल का जवाब देने के लिए आपके पास समय ही नहीं रहता, इसलिये घर आ धमकी। आज सवाल का जवाब लिये बग़ैर मैं कहीं नहीं जाने वाली। आप जितनी जल्दी मुझसे मुक्ति चाहते हैं उतनी जल्दी जवाब दे दें।
बहुत ही अच्छी बात है, परंतु इस सवाल का जवाब के लिये तुम इतनी उतावली क्यों हो? यह कहते हुए शशिकांत ने लता के चेहरे पर नज़रें जमा दी थी।
लता बोली- आप जानते हैं मैं गणित की विद्यार्थी रही हूँ, कठिन से कठिन फ़ार्मुले को पढ़ी हूँ। उसे हल किया है। परंतु दो और दो पाँच क्यों नहीं होते ? इस सवाल की तरफ़ मेरा ध्यान ही नहीं गया और अब जब यह सवाल आपके मुँह से सुनी हूँ तभी से इसे हल करने की कोशिश कर रही हूँ परंतु यह हल ही नहीं हो रहा है। लगता है मेरी पूरी पढ़ाई व्यर्थ हो चली है?
शशिकांत ने इस बात की परवाह किए बिना ज़ोर से ठहाका लगाया था कि उसके ठहाके से लता को बुरा लगेगा। फिर उसने कहा था, मैंने तो उस दिन कालेज में ही कहा था कि ये जीवन के सवाल हैं जिसे गणित के फ़ार्मुले से हल नहीं किए जा सकते !
लता को शशिकांत का इस तरह से हँसना बुरा लगा था और वह मन के भीतर की प्रतिक्रिया चेहरे पर आने से नहीं रोक सकी थी, फिर भी हँसते हुए इतना ही कहा था, मुझे इस सवाल का जवाब जानना है । गणित न सही जीवन में भी दो और दो , पाँच क्यों नहीं होते?
इस बार शशिकांत गम्भीर हो गए थे । उन्होंने कहा क्या तुम ज्योतिष पर विश्वास करती हो ?
लता के चेहरे पर असमंजस के भाव देख शशिकांत ने कहा दरअसल जीवन और गणित में यहीं फ़र्क़ है। गणित में सब कुछ सुलझा होता हैं और जीवन व्यवस्थित दिखते हुए भी उलझा होता है। व्यक्ति परिवार, समाज सब कुछ उलझा होता है। और इसी से सामंजस्य बिठाने के लिए ही परम्पराएँ और मान्यताओ का सहारा लिया जाता है और इसके इतर जाने का अर्थ जीवन की व्यवस्थित राह को और कठिन कर लेना है। मानवीय प्रवृतियाँ है वह एक राह में चलते चलते ऊब जाता है इसलिए वह परम्परा और मान्यता को बोझ समझ उतार फेंकना चाहता है जबकि समय के साथ मान्यता स्वयं बदलती है, पर समय के पहले बदलाव का अर्थ प्रकृति को चुनौती देना होता है। जिस तरह से पगडंडी चौड़ी होते चली जाती है। पगडंडी कब सड़क का रूप लेगा यह निश्चित नहीं होता । आवाजाही बढ़ेगी तो पगडंडी स्वतः अपना रूप बदल लेती है। बदलाव प्रकृति का नियम है, तभी तो दिन-रात और मौसम सब कुछ आता जाता रहता है।
लता शशिकांत को ध्यान से सुन रही थी । उसे इस तरह कभी नहीं समझाया गया था । उसे यह सब अच्छा लग रहा था और शशिकांत बोले जा रहे थे। मौसम के बदलने और दिन-रात के परिवर्तन को विस्तार दे रहे थे। ज्योतिष को अब विज्ञान का दर्जा देने की बात हो रही है, कहीं-कहीं तो विज्ञान का दर्जा भी दिया जा चुका है, परंतु ज्योतिष और ग्रह नक्छ्त्र को लेकर अभी भी भ्रांतियाँ है। ठीक उसी तरह दो और दो चार के गणित में यह प्रश्न अब भी खड़ा है कि दो और दो , तीन या पाँच क्यों नहीं होते?
गणित में भले ही यह सवाल महत्वहीन हो , पर जीवन में इसका महत्व है, क्योंकि जीवन को संतुलित बनाए रखने दो और दो का चार ही रहना उचित है। तीन या पाँच होने का अर्थ असंतुलित हो जाना है। अव्यवस्थित हो जाना है। जब भी कोई व्यक्ति दो और दो को तीन और पाँच करने की कोशिश करता है, व्यवस्था का प्रश्न खड़ा हो जाता है।
भले ही रामायण में तुलसीदास जी ने समरथ को नहीं दोस गोसाई व्याख्या की हो परंतु लोकाचार में यह पूरी तरह अनुचित है। दो और दो के तीन होने का अर्थ दूसरे के मुक़ाबले में कमी होना और पाँच करने का अर्थ किसी का हक़ मारना है। और दोनो ही स्थिति में शक्ति का असंतुलन बढ़ना और विवाद पैदा होना है।
इन दिनो यही तो हो रहा है , देते संत लोग तीन और लेते समय पाँच का हिसाब करने लगे हैं।
अब तक ख़ामोशी से सब सुन रही लता बोली परंतु नैतिकता तो अब बेमानी होने लगी है, ऐसे में दो और दो चार केवल किताबों की बात रह गई है।
शशिकांत केवल मुस्कुराकर रह गया।
तभी शशिकांत की माँ भीतर आकर सोफ़े पर बैठते हुए लता से बोली- अच्छा हुआ तुम आ गई वरना इस घर में कोई झाँकना तक पसंद नहीं करता, आते रहना। इसके लिए तो घर का मतलब सिर्फ़ चारदिवारी है।
शशिकांत कुछ कहता इससे पहले लता ने ही विदा लेते हुए कहा था- चलती हूँ।
और आना... माँ ने इतना ही कहा।
लता ने दरवाज़े पर दस्तक दी तो शशिकांत ने ही दरवाज़ा खोलकर एक तरफ़ होते हुए लता को भीतर चलने कहा। फिर लता को ड्राइंग रूम में बिठाकर वे भीतर चले गये।
जब तक शशिकांत ड्राइंग रूम मे वापस आते , लता ने ड्राइंग रूम का नज़रों ही नज़रों मे मुआयना कर लिया । ड्राइंग रूम के एक कोने में किताबें क़रीने से सजाईं गई थी, हालाँकि पूरा ड्राइंग रूम ही तरीक़े से सजाया गया था । वह अभी घर में किसी और की उपस्थिति का आहट लेने की कोशिश कर ही रही थी कि शशिकांत आ गये। उनके साथ एक औरत भी आई थी। जिसका परिचय शशिकांत ने माँ के रूप में देते हुए कहा था ,घर में बस वे दो लोग ही रहते हैं।
लता चौकी थी, फिर भी स्वयं को संयमित करते हुए माँ के क़दमों को छू कर आशीर्वाद लिया। वह तो शशिकांत को शादी-शुदा समझ रही थी । उसने सोचा कि वह पुछे कि शशिकांत ने विवाह क्यों नहीं किया , परंतु उसे यह सवाल स्वयं में ही अटपटा लगा था। इसलिये उसने चुप रहना ही बेहतर समझा ।
शशिकांत की माँ सोफ़े में बैठते हुए कहा - नाश्ता करोगी या करके आई हो ? लता के इंकार के बाद वह उठकर भीतर चली गई थी और जब लौटी तो उसके हाथ मे ट्रे पर चाय के दो कप और दो गिलास पानी था। इस बीच लता और शशिकांत के बीच ख़ामोशी छाई रही। ट्रे सर्व कर माँ भीतर जाते हुए इतना ही कहा था कि तुम लोग बात करो मुझे घर का सब काम निपटाना है।
चाय का कप उठाते हुए शशिकांत ने लता से कहा था , लो चाय पी लो। घर का पता ढूँढने में कोई असुविधा तो नहीं हुई।
नहीं कहते हुए लता ने कहा - असुविधा क्यों होती? आपने तो सब कुछ पहले ही बता दिया था ।
अच्छी बात है शशिकांत ने कहा था।
लता बोली- अवकाश के दिन मैं आपको परेशान करने आ गई । आपका अवकाश ख़राब हो गया।
नहीं, मैं तो अवकाश के दिन वैसे भी घर पर ही रहता हूँ। माँ भी नहीं चाहती की अवकाश के दिनो में मैं काम करूँ।
लता हँस दी। मीठी और संकोचहीन । बोली- क्या करती कालेज में सवाल का जवाब देने के लिए आपके पास समय ही नहीं रहता, इसलिये घर आ धमकी। आज सवाल का जवाब लिये बग़ैर मैं कहीं नहीं जाने वाली। आप जितनी जल्दी मुझसे मुक्ति चाहते हैं उतनी जल्दी जवाब दे दें।
बहुत ही अच्छी बात है, परंतु इस सवाल का जवाब के लिये तुम इतनी उतावली क्यों हो? यह कहते हुए शशिकांत ने लता के चेहरे पर नज़रें जमा दी थी।
लता बोली- आप जानते हैं मैं गणित की विद्यार्थी रही हूँ, कठिन से कठिन फ़ार्मुले को पढ़ी हूँ। उसे हल किया है। परंतु दो और दो पाँच क्यों नहीं होते ? इस सवाल की तरफ़ मेरा ध्यान ही नहीं गया और अब जब यह सवाल आपके मुँह से सुनी हूँ तभी से इसे हल करने की कोशिश कर रही हूँ परंतु यह हल ही नहीं हो रहा है। लगता है मेरी पूरी पढ़ाई व्यर्थ हो चली है?
शशिकांत ने इस बात की परवाह किए बिना ज़ोर से ठहाका लगाया था कि उसके ठहाके से लता को बुरा लगेगा। फिर उसने कहा था, मैंने तो उस दिन कालेज में ही कहा था कि ये जीवन के सवाल हैं जिसे गणित के फ़ार्मुले से हल नहीं किए जा सकते !
लता को शशिकांत का इस तरह से हँसना बुरा लगा था और वह मन के भीतर की प्रतिक्रिया चेहरे पर आने से नहीं रोक सकी थी, फिर भी हँसते हुए इतना ही कहा था, मुझे इस सवाल का जवाब जानना है । गणित न सही जीवन में भी दो और दो , पाँच क्यों नहीं होते?
इस बार शशिकांत गम्भीर हो गए थे । उन्होंने कहा क्या तुम ज्योतिष पर विश्वास करती हो ?
लता के चेहरे पर असमंजस के भाव देख शशिकांत ने कहा दरअसल जीवन और गणित में यहीं फ़र्क़ है। गणित में सब कुछ सुलझा होता हैं और जीवन व्यवस्थित दिखते हुए भी उलझा होता है। व्यक्ति परिवार, समाज सब कुछ उलझा होता है। और इसी से सामंजस्य बिठाने के लिए ही परम्पराएँ और मान्यताओ का सहारा लिया जाता है और इसके इतर जाने का अर्थ जीवन की व्यवस्थित राह को और कठिन कर लेना है। मानवीय प्रवृतियाँ है वह एक राह में चलते चलते ऊब जाता है इसलिए वह परम्परा और मान्यता को बोझ समझ उतार फेंकना चाहता है जबकि समय के साथ मान्यता स्वयं बदलती है, पर समय के पहले बदलाव का अर्थ प्रकृति को चुनौती देना होता है। जिस तरह से पगडंडी चौड़ी होते चली जाती है। पगडंडी कब सड़क का रूप लेगा यह निश्चित नहीं होता । आवाजाही बढ़ेगी तो पगडंडी स्वतः अपना रूप बदल लेती है। बदलाव प्रकृति का नियम है, तभी तो दिन-रात और मौसम सब कुछ आता जाता रहता है।
लता शशिकांत को ध्यान से सुन रही थी । उसे इस तरह कभी नहीं समझाया गया था । उसे यह सब अच्छा लग रहा था और शशिकांत बोले जा रहे थे। मौसम के बदलने और दिन-रात के परिवर्तन को विस्तार दे रहे थे। ज्योतिष को अब विज्ञान का दर्जा देने की बात हो रही है, कहीं-कहीं तो विज्ञान का दर्जा भी दिया जा चुका है, परंतु ज्योतिष और ग्रह नक्छ्त्र को लेकर अभी भी भ्रांतियाँ है। ठीक उसी तरह दो और दो चार के गणित में यह प्रश्न अब भी खड़ा है कि दो और दो , तीन या पाँच क्यों नहीं होते?
गणित में भले ही यह सवाल महत्वहीन हो , पर जीवन में इसका महत्व है, क्योंकि जीवन को संतुलित बनाए रखने दो और दो का चार ही रहना उचित है। तीन या पाँच होने का अर्थ असंतुलित हो जाना है। अव्यवस्थित हो जाना है। जब भी कोई व्यक्ति दो और दो को तीन और पाँच करने की कोशिश करता है, व्यवस्था का प्रश्न खड़ा हो जाता है।
भले ही रामायण में तुलसीदास जी ने समरथ को नहीं दोस गोसाई व्याख्या की हो परंतु लोकाचार में यह पूरी तरह अनुचित है। दो और दो के तीन होने का अर्थ दूसरे के मुक़ाबले में कमी होना और पाँच करने का अर्थ किसी का हक़ मारना है। और दोनो ही स्थिति में शक्ति का असंतुलन बढ़ना और विवाद पैदा होना है।
इन दिनो यही तो हो रहा है , देते संत लोग तीन और लेते समय पाँच का हिसाब करने लगे हैं।
अब तक ख़ामोशी से सब सुन रही लता बोली परंतु नैतिकता तो अब बेमानी होने लगी है, ऐसे में दो और दो चार केवल किताबों की बात रह गई है।
शशिकांत केवल मुस्कुराकर रह गया।
तभी शशिकांत की माँ भीतर आकर सोफ़े पर बैठते हुए लता से बोली- अच्छा हुआ तुम आ गई वरना इस घर में कोई झाँकना तक पसंद नहीं करता, आते रहना। इसके लिए तो घर का मतलब सिर्फ़ चारदिवारी है।
शशिकांत कुछ कहता इससे पहले लता ने ही विदा लेते हुए कहा था- चलती हूँ।
और आना... माँ ने इतना ही कहा।
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