फिर वह हर रविवार को आने लगी। पहली बार वह शशिकांत के घर जब सुबह-सुबह आयी थी , तब सवाल लेकर आयी थी। परंतु अब वह तब आती , जब शाम के साये अंधेरे में बदलने लगते। वह रोशनी और अंधेरे के संगम के समय आती और रात तक रुकती । शशिकांत के माँ से घंटो बात करती ।
शाम को शशिकांत घर पर नहीं होता तो वह उसके आने का इंतज़ार करती और कई बार तो माँ के कहने बाद भी तब तक नहीं ज़ाती जब तक शशिकांत नहीं आ जाता, फिर शशिकांत को उसे छोड़ने जाना होता।
शशिकांत की माँ कब लता की माँ बन गई थी, कोई नहीं जानता! लता हर रविवार को आती। रोशनी और अंधेरे के संगम पर आती । शुरू-शुरू में तो वह दरवाज़े पर थाप देती फिर उसने थाप देना भी बंद कर दिया था । धीरे से दरवाज़े को ढकेलतींऔर दबे पाँव भीतर चली आती।माँ को भी अब जैसे उसके आने की आदत हो गई थी । वह सोफ़े पर इंतज़ार करते बैठी होती थी। लता आती माँ के पैर छूती
और फिर बाज़ू में सोफ़े पर ही बैठ जाती।
लता के आते ही माँ की आँखो की चमक बढ़ जाती थी । वह हर बार उसे ऊपर से नीचे तक निहारती और फिर एक दिन माँ ने लता का हाथ अपने हाथ में लेकर उसे घर के भीतर और भीतर तक ले गई थी। रसोई घर तक...।
लता को याद है, माँ का छुअन ।उसे अच्छा लगा था। विश्वास का अंकुर दोनो तरफ़ से फूटने लगे थे । वैसे तो शुरू-शुरू में माँ कम बातें ही करती थी , फिर दोनो कब घुल - मिल गये और इतना घुल-मिल गये कि दोनो में सब तरह की बातें होती। शशिकांत का शादी नहीं करने का निर्णय से लेकर उसकी रुचि तक जान गई थी लता।
अब तो लता जब भी आती माँ और शशिकांत का पसंदीदा बिस्कीट और मिठाइयाँ भी लाने लगी। माँ के मना करने के बाद भी वह इस मामले मेन अपना हक़ क़ायम रखना चाहती थी।
वह आती, पैर छूती और फिर घर के काम मे हाथ बँटाने लगती। उसे घर का काम अच्छा लगने लगा था। अच्छा तो उसे शशिकांत भी लगने लगा था । शशिकांत का घर भी उसे भाने लगा था। तभी तो वह प्रत्येक रविवार को पूरे शाम-रात तक रूकने लगी थी।
लता यह भी महसूस करने लगी कि शशिकांत भी उसे पसंद करने लगा है। शशिकांत घर में होता तो वह किसी न किसी बहाने यह जानने की कोशिश करती कि शशिकांत उसे देख रहा है।
उसने कालेज में भी इस बात को नोटिस में लिया था , कि शशिकांत उसके पीठ के पीछे उसे देख रहा है। इन चार माह में न लता ने ही कभी कुछ कहा और शशिकांत भी चुप रहा। पर ऐसा लगता कि दोनो ने ही किसी अलिखित समझौते पर दस्तखत कर दिये हैं।
समय के साथ माँ को भी दोनो के भीतर फ़ुट रहे प्रेम के अंकुर का आभास होने लगा था।पर माँ को इंतज़ार था वह धीरज नहीं खोना चाहती थी इसलिए लता के जाने के बाद जब खा-पीकर माँ बिस्तर पर लेटती तो वह बहु के रूप में लता को लेकर सपने बुनती । वह यह मानने को बिलकुल भी तैयार नहीं थी कि लता कोई और वजह से घर आती है। वह मन ही मन मौक़ा तलाश कर लता या शशिकांत से बात करने की सोचती। परंतु शशिकांत के निर्णय और लता के मोहक मुस्कान के बीच वह तय नहीं कर पा रही थी कि पहले किससे पुछा जाय।
इसी उधेड़ बुन में दो-तीन हफ़्ते शायद महीना कब बीत गया पता ही नहीं चला। माँ का दिल कहता लता ज़रूर बहु बनना स्वीकार कर लेगी परंतु शशिकांत और लता के बीच की औपचारिकता उसके मन को शंकित कर देता था।
आख़िर एक दिन माँ ने हर हाल में अपनी बात कहने का निर्णय ले लिया। समय अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रहा था । शशिकांत को दूर शहर में अपने दोस्त के पास आवश्यक काम से बाहर जाना था । माँ को डर था कि इस रविवार को शशिकांत के नहीं होने की वजह से लता शायद ही आये। परंतु शशिकांत ने इसका ज़िक्र लता से किया ही नहीं था , शायद ज़िक्र करता तो लता नहीं भी आती ।
निर्धारित समय में रोशनी फिसलते - फिसलते अंधेरे में समाने आतुर थी तभी लता दबे पाँव दरवाज़ा खोलकर भीतर आई। रोशनी और अंधेरे के इस संगम का इंतज़ार कर रही माँ की आँखें चमक उठी, चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए आज माँ ने लता का अलग ही ढंग से स्वागत किया था, परंतु लता को इसका अहसास ही नहीं हुआ। सोफ़े में बैठाने की बजाय माँ ने लता का हाथ पकड़ भीतर कमरे में ले गई, अपने कमरे में। बिस्तर पर लता को बिठाते हुए माँ बिलकुल उससे सट कर बैठ गई । लता के दोनो हाथ अपने हाथों में लेकर।
माँ अपनी बात कहने किसी भूमिका की तलाश में थी तो लता , माँ के इस व्यवहार से भीतर ही भीतर व्याकुल होने लगी, दिल धड़कने लगा, बेचैनी हाथों तक पहुँचने लगी। और वह अपने हाथों को छुड़ाने की कोशिश की तो हाथों पर दबाव और बढ़ गया।
लता को अपने हाथ में बंधन महसूस होने लगा। इस बंधन से छूटने की कोशिश की तो उसे लगा कि जैसे उसका हाथ किसी बर्फ़ की सिल्ली में फँस कर रह गया है। उसने माँ की आँखो में भरपूर नज़र डाली पर माँ की नज़रें कहीं और थी , उसने अपने को ढीला छोड़ते हुए लम्बी साँस ली। तब माँ ने उसकी ओर देखते हुए हाथ ढीले किए। लता तेज़ी से बल्कि यूँ कहें कि झटके से अपना हाथ खिंचते हुए स्वयं को थोड़ा सा खिसकाया।
माँ अब भी अनिर्णय की स्थिति में थी तो लता असमंजस की स्थिति में। कमरे में अंधेरा घना होने लगा था। खिड़की से आ रही रोशनी फिसलते-फिसलते कमरे से बाहर होने लगी थी और सन्नाटा बढ़ने लगा था। तब लता ने अचानक उठ कर लाईट जला दी। कमरे में दूधिया रोशनी बिखर गई।
रोशनी के साथ ही माँ के भीतर का साहस जागने लगा। रगो में रक्त का प्रवाह तेज़ होने लगा , धड़कने तेज़ होने लगी। स्वयं को सहज करते हुए लता की आँखों में झाँकते हुए चेहरे पर मुस्कान लाई और कहा - बेटा! तुम मेरी बहु बनोगी ।
झटके से हाथ छुड़ाते हुए लता खड़ी हो गई और लगभग चीख़ते हुए बोली - मैं शादी नहीं करूँगी , मुझे बहु मत बोलिए !
लता तुम पहली लड़की हो जिसमें मैंने अपने बहु को देखा है। ग़ुस्सा मत हो, मुझ पर विश्वास करो । मेरा ध्येय तुम नहीं समझ रही हो , परंतु लता यह सब सुनने के लिए नहीं रुकी। तेज़ी से कमरे से बाहर निकली, फिर घर से भी...।
शाम को शशिकांत घर पर नहीं होता तो वह उसके आने का इंतज़ार करती और कई बार तो माँ के कहने बाद भी तब तक नहीं ज़ाती जब तक शशिकांत नहीं आ जाता, फिर शशिकांत को उसे छोड़ने जाना होता।
शशिकांत की माँ कब लता की माँ बन गई थी, कोई नहीं जानता! लता हर रविवार को आती। रोशनी और अंधेरे के संगम पर आती । शुरू-शुरू में तो वह दरवाज़े पर थाप देती फिर उसने थाप देना भी बंद कर दिया था । धीरे से दरवाज़े को ढकेलतींऔर दबे पाँव भीतर चली आती।माँ को भी अब जैसे उसके आने की आदत हो गई थी । वह सोफ़े पर इंतज़ार करते बैठी होती थी। लता आती माँ के पैर छूती
और फिर बाज़ू में सोफ़े पर ही बैठ जाती।
लता के आते ही माँ की आँखो की चमक बढ़ जाती थी । वह हर बार उसे ऊपर से नीचे तक निहारती और फिर एक दिन माँ ने लता का हाथ अपने हाथ में लेकर उसे घर के भीतर और भीतर तक ले गई थी। रसोई घर तक...।
लता को याद है, माँ का छुअन ।उसे अच्छा लगा था। विश्वास का अंकुर दोनो तरफ़ से फूटने लगे थे । वैसे तो शुरू-शुरू में माँ कम बातें ही करती थी , फिर दोनो कब घुल - मिल गये और इतना घुल-मिल गये कि दोनो में सब तरह की बातें होती। शशिकांत का शादी नहीं करने का निर्णय से लेकर उसकी रुचि तक जान गई थी लता।
अब तो लता जब भी आती माँ और शशिकांत का पसंदीदा बिस्कीट और मिठाइयाँ भी लाने लगी। माँ के मना करने के बाद भी वह इस मामले मेन अपना हक़ क़ायम रखना चाहती थी।
वह आती, पैर छूती और फिर घर के काम मे हाथ बँटाने लगती। उसे घर का काम अच्छा लगने लगा था। अच्छा तो उसे शशिकांत भी लगने लगा था । शशिकांत का घर भी उसे भाने लगा था। तभी तो वह प्रत्येक रविवार को पूरे शाम-रात तक रूकने लगी थी।
लता यह भी महसूस करने लगी कि शशिकांत भी उसे पसंद करने लगा है। शशिकांत घर में होता तो वह किसी न किसी बहाने यह जानने की कोशिश करती कि शशिकांत उसे देख रहा है।
उसने कालेज में भी इस बात को नोटिस में लिया था , कि शशिकांत उसके पीठ के पीछे उसे देख रहा है। इन चार माह में न लता ने ही कभी कुछ कहा और शशिकांत भी चुप रहा। पर ऐसा लगता कि दोनो ने ही किसी अलिखित समझौते पर दस्तखत कर दिये हैं।
समय के साथ माँ को भी दोनो के भीतर फ़ुट रहे प्रेम के अंकुर का आभास होने लगा था।पर माँ को इंतज़ार था वह धीरज नहीं खोना चाहती थी इसलिए लता के जाने के बाद जब खा-पीकर माँ बिस्तर पर लेटती तो वह बहु के रूप में लता को लेकर सपने बुनती । वह यह मानने को बिलकुल भी तैयार नहीं थी कि लता कोई और वजह से घर आती है। वह मन ही मन मौक़ा तलाश कर लता या शशिकांत से बात करने की सोचती। परंतु शशिकांत के निर्णय और लता के मोहक मुस्कान के बीच वह तय नहीं कर पा रही थी कि पहले किससे पुछा जाय।
इसी उधेड़ बुन में दो-तीन हफ़्ते शायद महीना कब बीत गया पता ही नहीं चला। माँ का दिल कहता लता ज़रूर बहु बनना स्वीकार कर लेगी परंतु शशिकांत और लता के बीच की औपचारिकता उसके मन को शंकित कर देता था।
आख़िर एक दिन माँ ने हर हाल में अपनी बात कहने का निर्णय ले लिया। समय अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ रहा था । शशिकांत को दूर शहर में अपने दोस्त के पास आवश्यक काम से बाहर जाना था । माँ को डर था कि इस रविवार को शशिकांत के नहीं होने की वजह से लता शायद ही आये। परंतु शशिकांत ने इसका ज़िक्र लता से किया ही नहीं था , शायद ज़िक्र करता तो लता नहीं भी आती ।
निर्धारित समय में रोशनी फिसलते - फिसलते अंधेरे में समाने आतुर थी तभी लता दबे पाँव दरवाज़ा खोलकर भीतर आई। रोशनी और अंधेरे के इस संगम का इंतज़ार कर रही माँ की आँखें चमक उठी, चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए आज माँ ने लता का अलग ही ढंग से स्वागत किया था, परंतु लता को इसका अहसास ही नहीं हुआ। सोफ़े में बैठाने की बजाय माँ ने लता का हाथ पकड़ भीतर कमरे में ले गई, अपने कमरे में। बिस्तर पर लता को बिठाते हुए माँ बिलकुल उससे सट कर बैठ गई । लता के दोनो हाथ अपने हाथों में लेकर।
माँ अपनी बात कहने किसी भूमिका की तलाश में थी तो लता , माँ के इस व्यवहार से भीतर ही भीतर व्याकुल होने लगी, दिल धड़कने लगा, बेचैनी हाथों तक पहुँचने लगी। और वह अपने हाथों को छुड़ाने की कोशिश की तो हाथों पर दबाव और बढ़ गया।
लता को अपने हाथ में बंधन महसूस होने लगा। इस बंधन से छूटने की कोशिश की तो उसे लगा कि जैसे उसका हाथ किसी बर्फ़ की सिल्ली में फँस कर रह गया है। उसने माँ की आँखो में भरपूर नज़र डाली पर माँ की नज़रें कहीं और थी , उसने अपने को ढीला छोड़ते हुए लम्बी साँस ली। तब माँ ने उसकी ओर देखते हुए हाथ ढीले किए। लता तेज़ी से बल्कि यूँ कहें कि झटके से अपना हाथ खिंचते हुए स्वयं को थोड़ा सा खिसकाया।
माँ अब भी अनिर्णय की स्थिति में थी तो लता असमंजस की स्थिति में। कमरे में अंधेरा घना होने लगा था। खिड़की से आ रही रोशनी फिसलते-फिसलते कमरे से बाहर होने लगी थी और सन्नाटा बढ़ने लगा था। तब लता ने अचानक उठ कर लाईट जला दी। कमरे में दूधिया रोशनी बिखर गई।
रोशनी के साथ ही माँ के भीतर का साहस जागने लगा। रगो में रक्त का प्रवाह तेज़ होने लगा , धड़कने तेज़ होने लगी। स्वयं को सहज करते हुए लता की आँखों में झाँकते हुए चेहरे पर मुस्कान लाई और कहा - बेटा! तुम मेरी बहु बनोगी ।
झटके से हाथ छुड़ाते हुए लता खड़ी हो गई और लगभग चीख़ते हुए बोली - मैं शादी नहीं करूँगी , मुझे बहु मत बोलिए !
लता तुम पहली लड़की हो जिसमें मैंने अपने बहु को देखा है। ग़ुस्सा मत हो, मुझ पर विश्वास करो । मेरा ध्येय तुम नहीं समझ रही हो , परंतु लता यह सब सुनने के लिए नहीं रुकी। तेज़ी से कमरे से बाहर निकली, फिर घर से भी...।
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