शनिवार, 9 मई 2020

खुलता-किवाड़ -११

लता के लिए एक-एक दिन काटना भारी पड़ रहा था। हालाँकि शशिकांत के कनाडा जाने के बाद से उस पर लगी बंदिशे अब पूरी तरह हट चुकी थी । वह आज़ाद थी । वह कहीं भी आ-जा सकती थी फिर भी उसकी हालत उस पंछी की तरह हो गई थी जिसे सालों पिंजड़े में बंद करने के बाद आज़ाद कर दिया हो , वह उड़ना भूल गई हो या उसे अपनी उड़ान की ताक़त का अन्दाज़ ही नहीं रहा हो।
उसका विश्वास डिगने लगा था , दो माह हो गए थे शशिकांत को कनाडा गए। तब से अब तक उस आदमी की कोई ख़बर नहीं थी । उसने कहा था वह फ़ोन करेगा, ई- मेल भेजेगा। उसने कितनी बार कम्प्यूटर खोलकर इन बाक्स को चेक किया था। वह रोज़ कई बार इन बाक्स को चेक करती और ई- मेल करती। वह अधीर होने लगी। जवाब दो शशिकांत , क्या हुआ शशिकांत , क्या तुम्हें मैं याद नहीं रही। पता नहीं कितने मैसेज लता ने भेजा था ।
वह शशिकांत को लेकर परेशान होने लगी । मन में कई तरह के विचार उठने लगे। लता को लगने लगा कि क्या शशिकांत ने उससे पीछा छुड़ाने कोई बहाना बनाया है? वह उससे पीछा छुड़ाने झूठ बोलकर चला गया? उसे झूठ बोलने की क्या आवश्यकता थी , वह सीधे बोल देता। शशिकांत को खोने का डर उसके मन में घर करते जा रहा था, वह छटपटाने लगती। बेचैन हो जाती। और फिर कुछ न समझ पाने पर रोने लगती। उसके आँसू से तकिया गीला हो जाता।
कभी-कभी लता को लगता कि शशिकांत को खो देने की वजह वह स्वयं है। उसे कनाडा भेजने की क्या ज़रूरत थी। घर वाले देर सवेर मान ही जातें। इतने बड़े देश में कहीं भी रह सकते थे। वह धीरे-धीरे अपराध- बोध से ग्रसित रहने लगी। लता ने पूरी तरह ख़ामोशी ओढ़ रखा था । वह घर में भी बहुत कम बातें करती । उसके इस व्यवहार से मम्मी को भी तकलीफ़ होने लगी थी । मम्मी उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसकी ख़ामोशी पर नाराज़गी जताती। लता ने देखा कि मम्मी पापा दोंनो ही उस पर ज़्यादा ध्यान देने लगे हैं मगर लता तो उस आदमी के लिए मरे जा रही थी जिसने कनाडा जाने के बाद एक  ई-मेल या फ़ोन तक नहीं किया।
लता अचानक उठ बैठती। खिड़की के परदे हटा कर  घंटो सड़कों को निहारती , कालेज आते व जाते समय कितनी ही बार उसे लगा कि वह आदमी उसके आसपास है। वह मुड़कर देखती और निराश हो जाती । उसकी आँखो की चमक ग़ायब हो जाती। धीरे-धीरे लता सबसे दूर होते जा रही थी। उसे लगता था जैसे कोई उसका अपना नहीं है। वह घंटो बिस्तर पर पड़ी रहती। मम्मी आकर पूछती। बेटा कैसे लग रहा है , दवाई दूँ। पापा कहते चलो डाक्टर के पास चलते हैं । इतनी सी बात पर भी लता चिड़चिड़ा जाती। वह अपने उम्र से बदी दिखने लगी थी।
चलते-चलते अचानक रुक जाना, किसी एक जगह खड़ी होकर वह अक्सर सोचती कि वह आदमी , जो उससे अथाह प्रेम का दावा करता था, उसके बग़ैर कैसे जी रहा होगा? हे भगवान! कहीं वह किसी संकट में तो नही फँस गया है। वह उसका गाँव का नाम तक नहीं जानती , क्या उसके घर जाकर अड़ोस-पड़ोस से पता करना चाहिए? कोई तो होगा जिससे शशिकांत सम्पर्क में होगा ।
फिर एक दिन, एक रविवार लता अपने जड़वत होते क़दम को रोक नहीं पाई , सूरज की रोशनी फिसलते-फिसलते अंधेरे की ओर क़दम रख रही थी। वह उठी, तैयार हुई, अनोखे ढंग से स्वयं को सजाया । दर्पण में स्वयं को निहारा, चेहरे मे मुस्कुराहट लाते माथे पर छोटी सी बिन्दी लगाई और पुनः अपने को निहारा। बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी वो। उस आदमी के कनाडा जाने के बाद वह पहली बार मन लगाकर सँवरी थी।
रोशनी और अंधेरे के संगम पर वह तेज़ी से क़दम बढ़ाते चली जा रही थी। उस आदमी के घर का मोड़ आते ही उसके दिल की धड़कन बढ़ गई। दूर से ही दरवाज़ा बंद दिखा। उसका सारा उत्साह जाता रहा। उसके पैर अचानक रुक गए। वह जड़वत खड़ी हो गई। वह नहीं समझ पा रही थी कि उसे क्या करना चाहिए , वह तो यहाँ किसी को जानती तक नहीं है। फिर वह किससे पुछे? ऐसे-कैसे किसी का दरवाज़ा खटखटाये?
इससे पहले वह जब भी शशिकांत के घर आई। कितनी ख़ुश होती थी। मगर इस बार लता अपने को सम्भाल नहीं पा रही थी। उसके पाँव काँप रहे थे। मन में एक अनजाना भय था। वह धीरे-धीरे शशिकांत के घर तक पहुँची , तो चौंक गई। दरवाज़ा बंद तो था लेकिन न कुंडी लगी थी न कोई ताला ही दिखा । वह चौंकी ! इसका मतलब घर में कोई है? लता ने सोचा कौन हो सकता हैघर में। इस बारे में उस आदमी ने कभी कुछ नहीं बताया था। उसके जाने के बाद घर बंद होगा, लता यही सोचती रही। लता की आँखो मेन चमक लौट आई। उसे लगा कि अब शशिकांत का पता चल जाएगा। स्वयं को सहज करते हुए लता ने दरवाज़े पर दस्तक दी। भीतर से किसी ने कहा- आरतीऽऽऽऽ ! देखो तो कौन है। लता को यह आवाज़ पहचानी सी लगी । शशिकांत की आवाज़! लता के चेहरे खिल उठे। मन ही मन कहा , पगला गई है। वह आदमी किस क़दर उसके ज़ेहन में समाया हुआ है कि उसे अब किसी और की आवाज़ भी शशिकांत की आवाज़ लगने लगा है।

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