लता व्याकुल और आतुर हो उठी। दरवाज़ा खुला । कमरे से निकलती हुई रोशनी उस पर पड़ी। वह हड़बड़ा गई। हड़बड़ाहट में होंठ कंपकपाए , होंठों पर ज़बान फेरी और वह प्रश्न करती इससे पहले ही फिर भीतर से आवाज़ आई, कौन आया है? इस बार लता को कोई भ्रम नहीं हुआ , यह आवाज़ उस आदमी की ही थी जिसके प्यार में वह तड़फ रही थी। जिसने लता को इस देश से दूर ले जाने का वादा किया था । परम्परा और समाज से दूर अपनी बाँहों में ज़िंदगी गुज़ारने की वकालत की थी। जिसने लता के बग़ैर अपने अस्तित्व पर ही प्रश्न-चिन्ह खड़ा कर दिया था। और लता के बग़ैर जी नहीं पाने का भरोसा दिलाया था।
कहाँ है शशिकांत ? वह भीतर घुसती चली जा रही थी , रोशनी कमरे में फैली हुई घी , लता का चेहरा ग़ुस्से से तमतमा गया था। उसकी आँखे फैल गई थी। मन में उपजी घृणा के भाव चेहरे पर दिखने लगा था। लता अपने बस में नहीं थी वह लगभग चीख़ते हुए बोली - शशिकांत तुम कनाडा नहीं गए , यहीं हो? और मैं तुम्हारा इंतज़ार करते रोज़ मर रही हूँ। मेरे साथ इतना बड़ा धोखा आख़िर तुमने क्यों किया। यदि तुम्हें लगता है कि मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ तो मुझसे कहकर अलग हो सकते थे। मैंने तुम्हें बाँध तो नहीं रखा था। फिर इतना छल-प्रपंच क्यों?
लता ग़ुस्से में जो मन में आया कहती रही। और फिर अचानक फूट-फूट कर रोने लगी। वह हैरानी से उस आदमी की ओर भी भी देख रही थी जो अब तक उसकी गलियों को चुपचाप सुन रहा था और दरवाज़ा खोलने वाली औरत अवाक् खड़ी लता के ग़ुस्से को देख रही थी।
शशिकांत की ख़ामोशी ने लता के ग़ुस्से को और बढ़ा दिया था । लता रोते-रोते ग़ुस्से से अचानक शशिकांत की तरफ़ लपकने लगी तभी वह औरत दोनो के बीच में खड़ी हो गई। तब लता को अहसास हुआ कि कमरे में कोई और भी है। वह चुपचाप सोफ़े पर निढाल हो गई और ख़ुद को सहेजने लगी।
शशिकांत अब भी ख़ामोशी से लता को निहार रहा था । उसकी आँखें बेचैन थी तब लता की नज़र अचानक वहील चेयर पर पड़ी , उसका सारा ग़ुस्सा काफ़ूर हो गया । तभी पानी! शशिकांत के मुँह से आवाज़ निकली। वह औरत चुपचाप भीतर चली गई। और जब लौटी तो उसके हाथ में दो गिलास थे। एक लता को देते हुए उसने दूसरा गिलास शशिकांत को दिया। पानी पीने के बाद लता ने राहत महसूस की। कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ था , मानो कोई है ही नहीं। तभी इस नीरवता को उस औरत ने यह कहते हुए भंग किया कि तुम लता ही हो न। मेरा नाम आरती है। चाय पियोगी और लता का जवाब सुने बग़ैर ही वह भीतर चली गई।
लता अब भी शशिकांत को देखे जा रही थी और शशिकांत भी। आँखें दोनो की भर आई थी , निशब्द , दोनो भीतर तक रो रहे थे ।
तभी आरती चाय लेकर लौटी। शशिकांत को चाय देकर वह लता को चाय का कप थमाते हुए उसके बग़ल में बैठ गई। कोई कुछ नहीं बोल रहा था, पता नहीं क्यों इतनी ख़ामोशी कि कमरे में कोई नहीं । चाय की चुस्कियाँ ही कमरे में किसी के होने का अहसास करा रहा था।
चाय का कप टेबल पर रखते हुए अचानक लता खड़ी हुई । वह जाने के लिए अपना दायाँ पाँव उठाई ही थी कि आरती ने उसका हाथ पकड़कर वापस सोफ़े पर बिठा दिया। लता ने कोई प्रतिवाद नहीं किया ।
इस बार भी कमरे की नीरवता को आरती ने ही तोड़ते हुए कहा- लता ! एक औरत होने के नाते मैं तुम्हारी पीड़ा समझ सकती हूँ लेकिन इसमें दोष किसी का नहीं है। कम से कम शशिकांत का तो क़तई नहीं, वह तो कब से कह रहे थे की तुम्हारे पास सूचना भिजवा दो , वह इंतज़ार कर रही होगी।
फिर आरती ने लता के सामने शशिकांत के साथ घटी दुर्घटना की पूरी कहानी सुनाने लगी। आरती गाँव से कैसे आई । शशिकांत कैसे अस्पताल में ज़िंदगी और मौत से जूझता रहा । यहाँ तक कि आरती को भी लता की पूरी कहानी का पता था ।
लता जार - जार रोने लगी। शशिकांत के इस हालत के लिए वह स्वयं को दोषी मानने लगी तब आरती ने कहा- देखो लता मैंने तो अपना जीवन इस आदमी के बग़ैर गुज़ारने का निश्चय कर लिया था और गाँव में जी भी रही थी। मगर ईश्वर ने मेरी सुन ली । अब तुम्हारे लिए भी अच्छा है कि तुम आइंदा यहाँ न आओ। मैं जानती हूँ तुम दोनो एक दूसरे से प्यार करते हो मगर अब परिस्थियाँ बदल गई है।शशिकांत की ज़िंदगी से दूर चली जाओ ।
दूर चली जाओ, यह शब्द लता के सीने में किसी हथौड़े की तरह लगा , वह आरती में आई इस अचानक तब्दीली से भौच्चक रह गई । उसने शशिकांत की ओर देखा पर शशिकांत के नज़र फेरते ही वह फट पड़ी, और शशिकांत की चुप्पी पर प्रश्न खड़ा करते हुए कहा - शशिकांत मैं जानती हूँ कि तुम मुझे भूल नहीं सकते। मुझसे तुम अब भी प्यार करते हो , मगर स्वयं की इस हालत की वजह से मुझे तुम छोड़ना चाहते हो मगर सोचो कि यह सब कनाडा जाने के बाद होता , क्या तब भी तुम्हारा यही निर्णय होता। आज तो मैं जा रही हूँ, मगर कल फिर आऊँगी । तब मुझे कोई नहीं रोक पाएगा। लता हार मान जाने वाली में से नहीं थी। और आरती ख़ुद को बेबस पा रही थी , उसने प्रतिवाद करने की कोशिश तो की लेकिन शशिकांत की ख़ामोशी के आगे वह शांत हो गई
और लता फिर आने की घोषणा के साथ घर लौट गई ।
कहाँ है शशिकांत ? वह भीतर घुसती चली जा रही थी , रोशनी कमरे में फैली हुई घी , लता का चेहरा ग़ुस्से से तमतमा गया था। उसकी आँखे फैल गई थी। मन में उपजी घृणा के भाव चेहरे पर दिखने लगा था। लता अपने बस में नहीं थी वह लगभग चीख़ते हुए बोली - शशिकांत तुम कनाडा नहीं गए , यहीं हो? और मैं तुम्हारा इंतज़ार करते रोज़ मर रही हूँ। मेरे साथ इतना बड़ा धोखा आख़िर तुमने क्यों किया। यदि तुम्हें लगता है कि मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ तो मुझसे कहकर अलग हो सकते थे। मैंने तुम्हें बाँध तो नहीं रखा था। फिर इतना छल-प्रपंच क्यों?
लता ग़ुस्से में जो मन में आया कहती रही। और फिर अचानक फूट-फूट कर रोने लगी। वह हैरानी से उस आदमी की ओर भी भी देख रही थी जो अब तक उसकी गलियों को चुपचाप सुन रहा था और दरवाज़ा खोलने वाली औरत अवाक् खड़ी लता के ग़ुस्से को देख रही थी।
शशिकांत की ख़ामोशी ने लता के ग़ुस्से को और बढ़ा दिया था । लता रोते-रोते ग़ुस्से से अचानक शशिकांत की तरफ़ लपकने लगी तभी वह औरत दोनो के बीच में खड़ी हो गई। तब लता को अहसास हुआ कि कमरे में कोई और भी है। वह चुपचाप सोफ़े पर निढाल हो गई और ख़ुद को सहेजने लगी।
शशिकांत अब भी ख़ामोशी से लता को निहार रहा था । उसकी आँखें बेचैन थी तब लता की नज़र अचानक वहील चेयर पर पड़ी , उसका सारा ग़ुस्सा काफ़ूर हो गया । तभी पानी! शशिकांत के मुँह से आवाज़ निकली। वह औरत चुपचाप भीतर चली गई। और जब लौटी तो उसके हाथ में दो गिलास थे। एक लता को देते हुए उसने दूसरा गिलास शशिकांत को दिया। पानी पीने के बाद लता ने राहत महसूस की। कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ था , मानो कोई है ही नहीं। तभी इस नीरवता को उस औरत ने यह कहते हुए भंग किया कि तुम लता ही हो न। मेरा नाम आरती है। चाय पियोगी और लता का जवाब सुने बग़ैर ही वह भीतर चली गई।
लता अब भी शशिकांत को देखे जा रही थी और शशिकांत भी। आँखें दोनो की भर आई थी , निशब्द , दोनो भीतर तक रो रहे थे ।
तभी आरती चाय लेकर लौटी। शशिकांत को चाय देकर वह लता को चाय का कप थमाते हुए उसके बग़ल में बैठ गई। कोई कुछ नहीं बोल रहा था, पता नहीं क्यों इतनी ख़ामोशी कि कमरे में कोई नहीं । चाय की चुस्कियाँ ही कमरे में किसी के होने का अहसास करा रहा था।
चाय का कप टेबल पर रखते हुए अचानक लता खड़ी हुई । वह जाने के लिए अपना दायाँ पाँव उठाई ही थी कि आरती ने उसका हाथ पकड़कर वापस सोफ़े पर बिठा दिया। लता ने कोई प्रतिवाद नहीं किया ।
इस बार भी कमरे की नीरवता को आरती ने ही तोड़ते हुए कहा- लता ! एक औरत होने के नाते मैं तुम्हारी पीड़ा समझ सकती हूँ लेकिन इसमें दोष किसी का नहीं है। कम से कम शशिकांत का तो क़तई नहीं, वह तो कब से कह रहे थे की तुम्हारे पास सूचना भिजवा दो , वह इंतज़ार कर रही होगी।
फिर आरती ने लता के सामने शशिकांत के साथ घटी दुर्घटना की पूरी कहानी सुनाने लगी। आरती गाँव से कैसे आई । शशिकांत कैसे अस्पताल में ज़िंदगी और मौत से जूझता रहा । यहाँ तक कि आरती को भी लता की पूरी कहानी का पता था ।
लता जार - जार रोने लगी। शशिकांत के इस हालत के लिए वह स्वयं को दोषी मानने लगी तब आरती ने कहा- देखो लता मैंने तो अपना जीवन इस आदमी के बग़ैर गुज़ारने का निश्चय कर लिया था और गाँव में जी भी रही थी। मगर ईश्वर ने मेरी सुन ली । अब तुम्हारे लिए भी अच्छा है कि तुम आइंदा यहाँ न आओ। मैं जानती हूँ तुम दोनो एक दूसरे से प्यार करते हो मगर अब परिस्थियाँ बदल गई है।शशिकांत की ज़िंदगी से दूर चली जाओ ।
दूर चली जाओ, यह शब्द लता के सीने में किसी हथौड़े की तरह लगा , वह आरती में आई इस अचानक तब्दीली से भौच्चक रह गई । उसने शशिकांत की ओर देखा पर शशिकांत के नज़र फेरते ही वह फट पड़ी, और शशिकांत की चुप्पी पर प्रश्न खड़ा करते हुए कहा - शशिकांत मैं जानती हूँ कि तुम मुझे भूल नहीं सकते। मुझसे तुम अब भी प्यार करते हो , मगर स्वयं की इस हालत की वजह से मुझे तुम छोड़ना चाहते हो मगर सोचो कि यह सब कनाडा जाने के बाद होता , क्या तब भी तुम्हारा यही निर्णय होता। आज तो मैं जा रही हूँ, मगर कल फिर आऊँगी । तब मुझे कोई नहीं रोक पाएगा। लता हार मान जाने वाली में से नहीं थी। और आरती ख़ुद को बेबस पा रही थी , उसने प्रतिवाद करने की कोशिश तो की लेकिन शशिकांत की ख़ामोशी के आगे वह शांत हो गई
और लता फिर आने की घोषणा के साथ घर लौट गई ।
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