दूसरे दिन स्टाफ़ रूम में लता ने शशिकांत पांडे को बैठे देखा तो दो और दो का सवाल पुनः उसके दिलों दिमाग़ में कौंध गया। वह तेज़ी से आगे बढ़ते हुए शशिकांत के ठीक बग़ल की कुर्सी में बैठ गई । परंतु शशिकांत इन सब बातों से बेपरवाह किताब में उलझा हुआ था ।
लता अब भी सवालों में उलझी सोच रही थी कि बात कहाँ से शुरू करूँ? सीधे सवाल करना उसे अटपटा लग रहा था, फिर इतने दिनो में वह शशिकांत से औपचारिक अभिवादन के अलावा कभी कोई बात भी कहाँ की थी। हालाँकि गणित के दूसरे टीचरो की तरह उसके मन में सबसे श्रेष्ठ का ख़्याल कभी नहीं आया था, उसकी नज़र में सबके प्रति सम्मान भाव एक सा था।
झिझकते हुए लता ने शशिकांत की तरफ़ मुख़ातिब होते हुए कहा था, सर! मुझे आपसे एक सवाल को लेकर डिस्कस करनी है।
हाँ क्यों नहीं। पूछिए? शशिकांत ने तब इतना ही कहा था ।
शशिकांत के इतना कहते ही लता ने भूमिका बाँधते हुए कहना शुरू किया-सर, कल आप स्टूडेण्ट्स लोगों को दो ही दो चार ही क्यों? तीन या पाँच क्यों नहीं का सवाल कर रहे थे ।
हाँ, लेकिन यह गणित का नहीं जीवन का सवाल था । शशिकांत ने सहज रूप से जवाब दिया था ।
मैं इस बारे में ही आपसे चर्चा करना चाह रही थी । लता इतना कहकर चुप हो गई ।
शशिकांत ने विनम्रता से कहा इसमें चर्चा की क्या बात है? जीवन के सवालों का उत्तर गणित की तरह निर्धारित नहीं होते हैं, गणित में जिस तरह से उत्तर निश्चित होते है परंतु जीवन में न सवाल निश्चित होते है , न ही उसके जवाब ही निश्चित है। समय के साथ सवालऔर जवाब बदलते रहते हैं। जिस तरह से नक़ली सोना को चोर नक़ली समझ कर चुराये, तो उसका नक़ली सोना होना सार्थक हो जाता है , उसी तरह जीवन जीने के अपने-अपने मापदंड के बाद भी समाज- परिवार की परम्परा को न चाहते हुए भी निभाना ज़रूरी है।
परंतु लता तो अब भी दो और दो के सवाल का सीधे उत्तर चाह रही थी , इसलिये उसने कहा था पांडे जी मैं तो सिर्फ़ यह जानना चाह रही हूँ कि दो और दो , तीन या पाँच क्यों नहीं होते ?
शशिकांत के चेहरे में मुस्कान बिखर गई । उसने कहा दो और दो चार होते है , यह तो गणित के मान्य नियम है और अब तक इस मान्यता को किसी ने चुनौती नहीं दी है इसलिये हम सब यह मान बैठे है । जैसे तुम लता हो ? माँ-बाप ने नाम रख दिया , और सबने स्वीकार कर लिया परंतु क्या तुमने कभी यह सोचा कि तुम लता ही क्यों हो ? विचार करना , तुम जया या रमा क्यों नहीं हो ? तुम्हें तुम्हारे सवालों का जवाब मिल जाएगा । यह कहते हुए शशिकांत पिरिएड में जाने की बात कहते हुए कुर्सी से उठकर चले गये।
लता अब भी अवाक् बैठे रही। शशिकांत की बात उसके पल्ले नहीं पड़ी थी , वह सोचने लगी कि कैसा व्यक्ति है यह ? सीधा-सीधा जवाब देने की बजाय शब्दों की बाज़ीगरी कर रहा है। दो और दो चार ही होते हैं तब तीन और पाँच नहीं होने का सवाल क्यों? परंतु सवाल यदि उठाया गया है तो इसका जवाब भी होगा, वह स्वयं ही जवाब ढूँढने की कोशिश करने लगी ।
लता के जीवन में यह पहला सवाल था जिसकी कठिनाई उसे भीतर तक महसूस हो रही थी। वह सोच रही थी कि आख़िर यह सवाल उसके मन में आज तक क्यों नहीं आया । दो और दो चार तो उसे पहली क्लास में ही रटा दिया गया था। तब गुरुजी ने पहले दो सीधी लकीर खिचवाई थी और फिर एक शून्य बनवाकर दो और लकीर खिचवाकर सभी लकीरों को गिनवा दिया था । वह भी लकीर गिनकर चार लिख दी थी। और गुरुजी ख़ुश हो गये थे।
पर यह क्या तीन और पाँच क्यों नहीं होते? यह कैसा सवाल है ? फिर पांडे जी इसका सीधा जवाब देने की बजाय इतना घुमा-फिरा क्यों रहे हैं ? इसका कुछ तो जवाब होगा?
लता के लिए इस सवाल का जवाब जानना ज़रूरी हो गया था। वह इस सवाल में बुरी क़दर उलझ गई थी, उसने हर तरफ़ से जवाब जानने की कोशिश की। यहाँ तक कि अब तक पढ़े फ़ार्मुले को भी खंगाल लिया परंतु वह इस सवाल को नहीं सुलझा पा रही थी। जो उत्तर मन में निकलते वह उससे संतुष्ट ही नहीं हो रही थी ।
उसने तय कर लिया कि वह शशिकांत से इस सवाल का जवाब ज़रूर पूछेगी । लता को सवाल ने इस क़दर उलझा दिया था कि वह शशिकांत के घर जाकर जवाब पूछने की सोच ली।
लता अब भी सवालों में उलझी सोच रही थी कि बात कहाँ से शुरू करूँ? सीधे सवाल करना उसे अटपटा लग रहा था, फिर इतने दिनो में वह शशिकांत से औपचारिक अभिवादन के अलावा कभी कोई बात भी कहाँ की थी। हालाँकि गणित के दूसरे टीचरो की तरह उसके मन में सबसे श्रेष्ठ का ख़्याल कभी नहीं आया था, उसकी नज़र में सबके प्रति सम्मान भाव एक सा था।
झिझकते हुए लता ने शशिकांत की तरफ़ मुख़ातिब होते हुए कहा था, सर! मुझे आपसे एक सवाल को लेकर डिस्कस करनी है।
हाँ क्यों नहीं। पूछिए? शशिकांत ने तब इतना ही कहा था ।
शशिकांत के इतना कहते ही लता ने भूमिका बाँधते हुए कहना शुरू किया-सर, कल आप स्टूडेण्ट्स लोगों को दो ही दो चार ही क्यों? तीन या पाँच क्यों नहीं का सवाल कर रहे थे ।
हाँ, लेकिन यह गणित का नहीं जीवन का सवाल था । शशिकांत ने सहज रूप से जवाब दिया था ।
मैं इस बारे में ही आपसे चर्चा करना चाह रही थी । लता इतना कहकर चुप हो गई ।
शशिकांत ने विनम्रता से कहा इसमें चर्चा की क्या बात है? जीवन के सवालों का उत्तर गणित की तरह निर्धारित नहीं होते हैं, गणित में जिस तरह से उत्तर निश्चित होते है परंतु जीवन में न सवाल निश्चित होते है , न ही उसके जवाब ही निश्चित है। समय के साथ सवालऔर जवाब बदलते रहते हैं। जिस तरह से नक़ली सोना को चोर नक़ली समझ कर चुराये, तो उसका नक़ली सोना होना सार्थक हो जाता है , उसी तरह जीवन जीने के अपने-अपने मापदंड के बाद भी समाज- परिवार की परम्परा को न चाहते हुए भी निभाना ज़रूरी है।
परंतु लता तो अब भी दो और दो के सवाल का सीधे उत्तर चाह रही थी , इसलिये उसने कहा था पांडे जी मैं तो सिर्फ़ यह जानना चाह रही हूँ कि दो और दो , तीन या पाँच क्यों नहीं होते ?
शशिकांत के चेहरे में मुस्कान बिखर गई । उसने कहा दो और दो चार होते है , यह तो गणित के मान्य नियम है और अब तक इस मान्यता को किसी ने चुनौती नहीं दी है इसलिये हम सब यह मान बैठे है । जैसे तुम लता हो ? माँ-बाप ने नाम रख दिया , और सबने स्वीकार कर लिया परंतु क्या तुमने कभी यह सोचा कि तुम लता ही क्यों हो ? विचार करना , तुम जया या रमा क्यों नहीं हो ? तुम्हें तुम्हारे सवालों का जवाब मिल जाएगा । यह कहते हुए शशिकांत पिरिएड में जाने की बात कहते हुए कुर्सी से उठकर चले गये।
लता अब भी अवाक् बैठे रही। शशिकांत की बात उसके पल्ले नहीं पड़ी थी , वह सोचने लगी कि कैसा व्यक्ति है यह ? सीधा-सीधा जवाब देने की बजाय शब्दों की बाज़ीगरी कर रहा है। दो और दो चार ही होते हैं तब तीन और पाँच नहीं होने का सवाल क्यों? परंतु सवाल यदि उठाया गया है तो इसका जवाब भी होगा, वह स्वयं ही जवाब ढूँढने की कोशिश करने लगी ।
लता के जीवन में यह पहला सवाल था जिसकी कठिनाई उसे भीतर तक महसूस हो रही थी। वह सोच रही थी कि आख़िर यह सवाल उसके मन में आज तक क्यों नहीं आया । दो और दो चार तो उसे पहली क्लास में ही रटा दिया गया था। तब गुरुजी ने पहले दो सीधी लकीर खिचवाई थी और फिर एक शून्य बनवाकर दो और लकीर खिचवाकर सभी लकीरों को गिनवा दिया था । वह भी लकीर गिनकर चार लिख दी थी। और गुरुजी ख़ुश हो गये थे।
पर यह क्या तीन और पाँच क्यों नहीं होते? यह कैसा सवाल है ? फिर पांडे जी इसका सीधा जवाब देने की बजाय इतना घुमा-फिरा क्यों रहे हैं ? इसका कुछ तो जवाब होगा?
लता के लिए इस सवाल का जवाब जानना ज़रूरी हो गया था। वह इस सवाल में बुरी क़दर उलझ गई थी, उसने हर तरफ़ से जवाब जानने की कोशिश की। यहाँ तक कि अब तक पढ़े फ़ार्मुले को भी खंगाल लिया परंतु वह इस सवाल को नहीं सुलझा पा रही थी। जो उत्तर मन में निकलते वह उससे संतुष्ट ही नहीं हो रही थी ।
उसने तय कर लिया कि वह शशिकांत से इस सवाल का जवाब ज़रूर पूछेगी । लता को सवाल ने इस क़दर उलझा दिया था कि वह शशिकांत के घर जाकर जवाब पूछने की सोच ली।