गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

खुलता-किवाड़ -२

दूसरे दिन स्टाफ़ रूम में लता ने शशिकांत पांडे को बैठे देखा तो दो और दो का सवाल पुनः उसके दिलों दिमाग़ में कौंध गया। वह तेज़ी से आगे बढ़ते हुए शशिकांत के ठीक बग़ल की कुर्सी में बैठ गई । परंतु शशिकांत इन सब बातों से बेपरवाह किताब में उलझा हुआ था ।
लता अब भी सवालों में उलझी सोच रही थी कि बात कहाँ से शुरू करूँ? सीधे सवाल करना उसे अटपटा लग रहा था, फिर इतने दिनो में वह शशिकांत से औपचारिक अभिवादन के अलावा कभी कोई बात भी कहाँ की थी। हालाँकि गणित के दूसरे टीचरो की तरह उसके मन में सबसे श्रेष्ठ का ख़्याल कभी नहीं आया था, उसकी नज़र में सबके प्रति सम्मान भाव एक सा था।
झिझकते हुए लता ने शशिकांत की तरफ़ मुख़ातिब होते हुए कहा था, सर! मुझे आपसे एक सवाल को लेकर डिस्कस करनी है।
हाँ क्यों नहीं। पूछिए? शशिकांत ने तब इतना ही कहा था ।
शशिकांत के इतना कहते ही लता ने भूमिका बाँधते हुए कहना शुरू किया-सर, कल आप स्टूडेण्ट्स लोगों को दो ही दो चार ही क्यों? तीन या पाँच क्यों नहीं का सवाल कर रहे थे ।
हाँ, लेकिन यह गणित का नहीं जीवन का सवाल था । शशिकांत ने सहज रूप से जवाब दिया था ।
मैं इस बारे में ही आपसे चर्चा करना चाह रही थी । लता इतना कहकर चुप हो गई ।
शशिकांत ने विनम्रता से कहा इसमें चर्चा की क्या बात है? जीवन के सवालों का उत्तर गणित की तरह निर्धारित नहीं होते हैं, गणित में जिस तरह से उत्तर निश्चित होते है परंतु जीवन में न सवाल निश्चित होते है , न ही उसके जवाब ही निश्चित है। समय के साथ सवालऔर जवाब बदलते रहते हैं। जिस तरह से नक़ली सोना को चोर नक़ली समझ कर चुराये, तो उसका नक़ली सोना होना सार्थक हो जाता है , उसी तरह जीवन जीने के अपने-अपने मापदंड के बाद भी समाज- परिवार की परम्परा को न चाहते हुए भी निभाना ज़रूरी है।
परंतु लता तो अब भी दो और दो के सवाल का सीधे उत्तर चाह रही थी , इसलिये उसने कहा था पांडे जी मैं तो सिर्फ़ यह जानना चाह रही हूँ कि दो और दो , तीन या पाँच क्यों नहीं होते ?
शशिकांत के चेहरे में मुस्कान बिखर गई । उसने कहा दो और दो चार होते है , यह तो गणित के मान्य नियम है और अब तक इस मान्यता को किसी ने चुनौती नहीं दी है इसलिये हम सब यह मान बैठे है । जैसे तुम लता हो ? माँ-बाप ने नाम रख दिया , और सबने स्वीकार कर लिया परंतु क्या तुमने कभी यह सोचा कि तुम लता ही क्यों हो ? विचार करना , तुम जया या रमा क्यों नहीं हो ? तुम्हें तुम्हारे सवालों का जवाब मिल जाएगा । यह कहते हुए शशिकांत पिरिएड में जाने की बात कहते हुए कुर्सी से उठकर चले गये।
लता अब भी अवाक् बैठे रही। शशिकांत की बात उसके पल्ले नहीं पड़ी थी , वह सोचने लगी कि कैसा व्यक्ति है यह ? सीधा-सीधा जवाब देने की बजाय शब्दों की बाज़ीगरी कर रहा है। दो और दो चार ही होते हैं तब तीन और पाँच नहीं होने का सवाल क्यों? परंतु सवाल यदि उठाया गया है तो इसका जवाब भी होगा, वह स्वयं ही जवाब ढूँढने की कोशिश करने लगी ।
लता के जीवन में यह पहला सवाल था जिसकी कठिनाई उसे भीतर तक महसूस हो रही थी। वह सोच रही थी कि आख़िर यह सवाल उसके मन में आज तक क्यों नहीं आया । दो और दो चार तो उसे पहली क्लास में ही रटा दिया गया था। तब गुरुजी ने पहले दो सीधी लकीर खिचवाई थी और फिर एक शून्य बनवाकर दो और लकीर खिचवाकर सभी लकीरों को गिनवा दिया था । वह भी लकीर गिनकर चार लिख दी थी। और गुरुजी ख़ुश हो गये थे।
पर यह क्या तीन और पाँच क्यों नहीं होते? यह कैसा सवाल है ? फिर पांडे जी इसका सीधा जवाब देने की बजाय इतना घुमा-फिरा क्यों रहे हैं ? इसका कुछ तो जवाब होगा?
लता के लिए इस सवाल का जवाब जानना ज़रूरी हो गया था। वह इस सवाल में बुरी क़दर उलझ गई थी, उसने हर तरफ़ से जवाब जानने की कोशिश की। यहाँ तक कि अब तक पढ़े फ़ार्मुले को भी खंगाल लिया परंतु वह इस सवाल को नहीं सुलझा पा रही थी। जो उत्तर मन में निकलते वह उससे संतुष्ट ही नहीं हो रही थी ।
उसने तय कर लिया कि वह शशिकांत से इस सवाल का जवाब ज़रूर पूछेगी । लता को सवाल ने इस क़दर उलझा दिया था कि वह शशिकांत के घर जाकर जवाब पूछने की सोच ली।

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

‘ खुलता-किवाड़ ‘ - १


लता के लिये यह सवाल सचमुच चौंकाने वाला था। वह सवाल सुन ठिठक गई थी । पाँव जैसे ज़मीन पर जम गये थे। उसने गणित में पीएचडी करने के बाद महाविद्यालय में नौकरी करते हुए एकाकी जीवन जीने का निर्णय लिया था । उसके इस निर्णय को लेकर मम्मी-पापा यहाँ तक कि भाई ललित ने भी विरोध किया था। लता को समझाने की कोशिश अब भी जारी थी। परंतु लता ने तो जैसे तय कर लिया था , हमेशा अपने निर्णय पर अडिग और कुशाग्र बुद्धि की लता को लेकर मोहल्ले में भी उसके इस निर्णय की चर्चा कम नहीं होती थी, परिवार , समाज में भी उसे समझाने की कितनी ही कोशिश नहीं हुई ? परंतु लता को इन बातों कीजैसे परवाह ही नहीं थी। चाँद सा सुंदर चेहरा और बड़ी-बड़ी आँखे लता के व्यक्तित्व को निखारने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखा था।
विजय और सुषमा की यह लाड़ली शुरू से ही पढ़ाई में होशियार थी, और इन दिनो वह शहर के सबसे प्रतिष्ठित विक्टर कालेज में गणित के प्रोफ़ेसर के रूप में नौकरी कर रही थी। कालेज में पढ़ाते उसे दो माह हो गये थे और इन दो माह में उसने अपने कार्य और व्यवहार से सभी का मन जीत लिया था।
आज भी वह अपना पहला पिरिएड समाप्त करने के बाद दूसरे पिरिएड के लिये जल्दी-जल्दी रूम नम्बर ३६ की ओर बढ़ रही थी, तभी रूम नम्बर १९ से यह सवाल उसके कान से होते हुए मस्तिष्क तक जा पहुँचा । सवाल सुन कर वह चौकी ही नहीं थी , उसके क़दम भी रुक गये थे।
लता ने दरवाज़े के किनारे से झाँकने की कोशिश की तो शशिकांत पांडे की नज़र भी उस पर पड़ गई। वह हड़बड़ा गई थी , और इस हड़बड़ी में वह तेज़ी से आगे बढ़ गई। परंतु सवाल अब भी उसके मस्तिष्क में गूँज रहा था, कि आख़िर दो और दो चार क्यों होते हैं, तीन या पाँच क्यों नहीं होते ।
लता क्लास रूम में पहुँच गई थी और लेक्चर देने भी लगी, परंतु उसका ध्यान इस सवाल से हट ही नहीं पाया। इस सवाल के साथ उसके मस्तिष्क पर एक और सवाल तैर रहा था कि आख़िर शशिकांत पांडे जी हिंदी की बजाय गणित के ऐसे सवाल क्यों कर रहे थे? वह शशिकांत पांडे जी के बारे में इतना ही जानती थी कि वे हिंदी के न केवल प्रखंड विद्वान हैं बल्कि उनकी कई किताबें स्कूलों में पढ़ाई जाती है। कालेज के बाद बचे समय पर वे पुरोहिती या ज्योतिष का कार्य भी करते हैं।
लता को अभी दो पिरिएड और लेने थे परंतु उसका ध्यान तो दो और दो चार पर ही उलझ गया था। उसने कितनी ही बार इस सवाल को झिढ़कने की कोशिश भी की । वह जब तीसरा और चौथा पिरिएड लेकर स्टाफ़ रूम में पहुँची तो , उसने शशिकांत से इस सवाल को लेकर चर्चा करने की सोच ली थी , परंतु यह क्या स्टाफ़ रूम में शशिकांत नहीं थे। उसने शशिकांत के आने की प्रतीक्षा करने की सोच पास ही रखी पत्रिका उठाकर कुर्सी पर बैठ गई, और पत्रिका का पन्ने पलटने लगी परंतु उसका ध्यान दरवाज़े पर ही लगा रहा। उसका ध्यान तब टूटा जब मीना मैडम की आवाज़ आई, अरे लता आज घर नहीं जाना है क्या ? वह चौंकी ! उसे कुर्सी पर बैठे आधा घंटे हो गए थे । उसने हड़बड़ी में पत्रिका बाज़ू की कुर्सी में रखते हुए कहा था , पांडे जी से कुछ चर्चा करनी है। मीना ने तपाक से जवाब दिया था, वे तो कब से चले गये हैं ।
लता के चेहरे पर झुँझलाहट साफ़ देखी जा सकती थी । वह अपना बैग उठाते हुए स्टाफ़ रूम से बाहर निकल गई । सवाल के चक्कर में लता को इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि पांडे जी हर रोज़ पहले ही चले जाते हैं । रास्ते भर लता सवाल में ही उलझी रही। उसे याद नहीं पड़ रहा था कि उसने दो और दो चार ही क्यों? का सवाल किसी क्लास में पढ़ा हो? वह बार-बार यही सोच रही थी कि यह कैसा सवाल है? दो और दो तीन या पाँच क्यों नहीं ? चार ही क्यों ?
गणित में टॉप करने वाली लता इस सवाल में ऐसा उलझ गई थी कि उसे पता ही नहीं चला कि घर कब पहुँच गई। घर आकर वह नियमित दिनचर्या में जुट गई और सवाल काफ़ी पीछे छूट गया था। हालाँकि सवाल के छूटने की वजह लता का वह निर्णय था कि अब वह कल सीधे शशिकांत से चर्चा कर लेगी।
लता का यह स्वभाव था कि वह अपने निर्णय पर मूड कर नहीं देखती थी । वर्तमान को अच्छी तरह से जीने वाली लता की दिनचर्या में शाम का खाना बनाना शामिल था । वह जब पढ़ाई के दौरान कालेज पहुँची थी , तभी से घर के काम में हाथ बँटाने लगी थी और जब ग्रेजुएट की पढ़ाई पूरी की तब उसने अपना निर्णय सुना दिया था कि अब से वह शाम का खाना स्वयं बनाएगी । तब मम्मी-पापा दोनो ने मना किया था परंतु लता ने साफ़ कह दिया था कि वह खाना बनाएगी। तब से वह शाम का खाना बनाने लगी थी ।

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

अपनी बात

‘ खुलता-किवाड़ ‘ स्त्री -पुरुष सम्बंध को लेकर समाज में आये बदलाव की कहानी है । शादी नहीं करने का निर्णय लेने वाली लता एक व्यक्ति से प्रेम करने लगती है , तब वह परिवार - समाज, संस्कार को कितना निभा पाती है । वेदना-संवेदना के बीच समाज में आये बदलाव में परम्पराएँ कैसे चूर-चूर हो जाती है , यही सब इस उपन्यास का आधार है ।
परिवार और समाज के ताने -बाने में बँधा भारतीय समाज में अब किस तरह से परिवर्तन हो रहा है । बच्चों की ख़ुशी के लिये क्या तंज सामाजिक ताने-बाने को ढीला किया जा रहा है । खुलता-किवाड़ के माध्यम से बदलती परम्परा को समझने की कोशिश है ।
कौशल तिवारी

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